Tuesday, August 18, 2009

कथक को लोकप्रिय बनाने के लिए अब प्रायोजक नहीं मिल रहे हैं..




पद्म विभूषण से सम्मानित जानेमाने कथक गुरु पंडित बिरजू महाराज का कहना है कथक को लोकप्रिय बनाने के लिए अब प्रायोजक नहीं मिलते हैं। कथक को एक मुकाम तक पहुँचाने वाले लखनऊ घराने के इस कलाकार का शुरुआती दौर संघर्ष का रहा है। उन्होंने कहा कि जब इस कला को बढ़ावा देने के लिए प्रायोजक नहीं मिलते हैं तो उन्हें काफी दुख होता है।

महाराज ने कहा, "कथक के लिए प्रायोजक नहीं मिलने से मैं काफी चिंतित और दुखी हूं। दरअसल इस नृत्य को पेश करने वाले कार्यक्रम काफी महंगे होते हैं। अब काफी कम लोग प्रायोजक बनने के लिए सामने आते हैं। "

महाराज ने कहा कि अब फिल्मों में शास्त्रीय नृत्यों को काफी कम शामिल किया जा रहा है। उन्होंने कहा, "इन खबरों से मुझे दुख होता है। अब फिल्मकार भी अपने फिल्मों में कत्थक को शामिल करने से कतराते हैं। यदि मुड़कर देखें तो देवदास जैसी कुछ फिल्मों में ही कत्थक को शामिल किया गया था।"

महाराज ने फिल्मकार संजय लीला भंसाली की फिल्म 'देवदास' के एक गीत 'काहे छेड़े मोहे.' की कोरियोग्राफी की थी और संगीत भी दिया था।

वैसे 71 वर्षीय कथक गुरु इस बात से खुश हैं कि युवा पीढ़ी, खासकर बच्चे कथक नृत्य सीखने के प्रति रूचि दिखा रहे हैं। वह लगभग 250 बच्चों को कत्थक सीखा रहे हैं। उन्होंने कहा, "यह कथक के लिए अच्छा और सकारात्मक संकेत है। "

महाराज क जन्म लखनऊ के एक बड़े कथक घराने में हुआ था। उनके पिता अच्छन महाराज, चाचा शंभू महाराज का ख़ासा नाम था पर जब वह केवल नौ वर्ष के थे तो उनके पिता जी गुज़र गए। पिताजी के गुज़र जाने के बाद वे कर्ज़ में भी रहे और ग़रीबी का दौर भी झेला। उन्होंने एक बार बताय़ा था कि संकट के दिनों में समय उनकी गुरूबहन कपिला वात्स्यायन लखनऊ आईं और वह उन्हें अपने साथ दिल्ली ले आईं।

दिल्ली में शुरुआत के दिन में भी उन्हें काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। उन्होंने 175 रूपए की नौकरी मिली थी। महाराज ने जामा मस्ज़िद से रॉबिन हुड साइकिल खरीदी थी। वह साइकिल आज भी पास आज भी रखी है। एकबार बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि दिल्ली में उन दिनों पाँच और नौ नंबर की बसें चलती थीं, कनॉट प्लेस से दरियागंज के लिए।

महाराज ने कोलकाता से अपने सफलता के सफ़र की शुरुआत की और फिर मुंबई में काफ़ी आगे बढ़े। वह कोलकाता को अपनी माँ और मुंबई को अपना पिता कहते हैं। उन्होंन कहा कि आज जब वह मुड़कर देखते हैं तो उन्हें संतुष्टि मिलती है लेकिन जब कथक को कोई प्रायोजक नहीं मिलता है तो वह दुखी हो जाते हैं।

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