Friday, May 15, 2009

शहर के मूल में हो रहे बदलावों का लेखा-जोखा

ब्लॉग पर पोस्ट करने के बाद जब हम प्रतिक्रियाओं पर नजर डालते हैं तो कई नयी बातें तो कई बड़े सवाल हमारे सामने खड़े हो जाते हैं। हाल ही में जब एक शहर जहां से हम आए थे... लिखा तो कुछ प्रतिक्रियाएं आईं। जहां संदीप ने लिखा-

गांव/शहर की याद आनी चाहिए फॉर अ चेंज जाइए, घूम-घाम आइए किसी माल से बियर-शियर पीके तरोताजा होइए। क्या गांव-तांव का रोना लेकर बैठ गए आप, साला आफिस के एसी में भी पसीना छूट गया.....


वही सुशांत ने एक सवाल दाग दिया, जिसे मैंन पोस्ट के अंत में छेडा था। उन्होंने पूछा- बदलावों के बारे में विस्तार से लिखिए...क्या-क्या हो रहा है...

मैं यही आकर रूक गया। शहर को देखने का नजरिया हर किसी का अलग होता है लेकिन शहर के मूल में हो रहे बदलाव समान हैं। वह चाहे मेरा शहर पूर्णिया हो या फिर दरभंगा, कानपुर या इलाहाबाद। बदलाव हर जगह हुए और भी हो रहे हैं।

जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि बदलाव बेहद जरूरी है लेकिन इन बदलावों के बीच शहर अपनी पहचान को नहीं खो दे, नहीं तो मुश्किल का अहसास होता है। मैंने पूर्णिया में हुए बदलावों को नजदीक से देखा है। साल दर साल यह शहर बदलता जा रहा। हर बार जब इस शहर से अपने शहर जाता हूं तो कुछ ऐसा जरूर देखने को मिलता है जिसे मैंने पहले नहीं देखा था। सच कहूं कुछ बदलावों को देखकर मन खुश भी होता है। लेकिन जब बदलाव के नाम पर शहर की पुरानी आदत मिटते देखता हूं तो दुख होता है।

सकारात्मक बदलाव के संबंध में मेरा फोकस बाजार पर है। मुझे बाजार में हुए बदलाव सबसे रोचक लगते हैं। आप किसी भी शहर के मुख्य बाजार में शाम में घूम आइए, शहर अपनी छाप आप पर जरूर छोड़ेगा। एक वर्ष में यह छाप एक अलग अंदाज में आपको नजर आएगा। दुकानों के साइनबोर्ड से लेकर सब्जी बाजार की आवाज सब कुछ बदल जाते हैं। यहां आप भाषाई बदलाव से रूबरू हो सकेंगे। मछली बेचने से लेकर सब्जी बेचने के अंदाज में दिल्ली और लुधियाना के बाजारों का स्पष्ट आभाश मिलेगा।

सबसे मजा मुझे अपने शहर के बाजार में रविवार दोपहर को आता है। कपड़े के बड़े दुकानों के बाहर फेरी लगाकर कपड़े बेचते ठेले वाले को देखकर जनपथ की तस्वीर साफ हो जाती है। दरअसल रविवार को ये ब़डे दुकान बंद रहते हैं। ये सारे नए ढंग बाजार में गत चार-पांच वर्षों में आए हैं। समय देकर इस पर अध्ययन करने में काफी मजा आ सकता है, और साथ में ऑडियो और वीडियो विजुअल्स का सहारा लें तो मजा दोगुना हो सकता है।

रही बात उन परिवर्तनों की, जिससे दुख होता है। उसमें शहर की बोली और लोकसंस्कृति शामिल है। लोककला तो जैसे तस्वीर से गायब ही हो चली है। शहर का विस्तार जरूर हुआ लेकिन इससे शहर के नक्शे से वे बस्ती गायब हो गए जहां पहले वे लोग रहा करते थे, जिनके पास विदापत नाच से लेकर लोकगीतों का खजाना था, अब वहां इमारतें बन गई। धरती -जमीन कहलाने लगी। दरअसल आप जबतक धरती कहेंगे तबतक उसे बेच नहीं पाएंगे लेकिन जमीन शब्द जेहन और बोली में आते ही धन हम पर हावी हो जाता है।

रेणु ने अपनी कृतियों में कभी जमीन नहीं कहा, वे हमेशा भूमि, धरती कहा करते थे....लेकिन अब उनकी भूमि-जमीन कहलाने लगी है, जिसके बारे में वे कहा करते थे-इसमें फूल भी है शूल भी, धूल भी है, गुलाल भी, कीचड़ भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरुपता भी। दरअसल यही है बदलाव, मूल में बदलाव।

3 comments:

निर्मला कपिला said...

aap shahar ki baat kar rahe hain lok kala to aaj kal gaano se bhi lupt ho rahee hai

विनीत कुमार said...

कभी ऐसे इलाके पर नजर गयी है जहां शहर की तरह उंची इमारतें बनी मिले तो लगता है कि कहीं से लाकर चस्पा दिया गया हो और अगर गांव की तरह बीच-बीच में दो-चार गाछ हो तो ऐसा लगे कि सेविंग करते हुए गलती से छूट गयी, बढ़ी हुई दाढ़ी है, वहां पर उस गाछ को देखकर भी मन अच्छा नहीं लगता। कभी देखता, अजीब स्थिति हो जाएगी। दो दिनों से मैं ऐसे ही इलाके में भटक रहा था, अगर आधा बेला मॉल जाने की बात छोड़ दूं तो।..

Anonymous said...

बात तो आप ठीक कह रहे हैं