Thursday, July 05, 2007

काश सूरज की ज़ुबां होती.


ऋचा साकल्ले (Richa sakalle ) इलेक्ट्रोनिक मीडिया में अपना ठिकाना बना चुकी है। सहारा समय में वो आजकल प्रोडक्शन का काम देख रही है। हमारी मुलाकात, (नहीं बातचीत) ई-मेल के जरिए हुई। ब्लॉग की दुनिया में उनका आना-जाना लगा रहता है, एक पाठक के तौर पे..। हमारी तकरीबन 70-75 पंक्तियों में बात हुई (धन्य जी-मेल देवता जो चैट कराने में लोगों की मदद कराता है....), खैर, इसी दरम्यान हमने ऋचा जी को अनुभव में लिखने की गुजारिश की, अगले ही दिन उन्होंने एक बेहतरीन कविता मेल किया। "काश सूरज की ज़ुबां होती.. “यह कविता रोमन में मेरे पास पहुंची, जब इसे मैं हिन्दी में टिपीया रहा था..तो सच कहता हूं मैं भी उन्हीं के ज़ुबां में बुदबुदाने लगा – “काश सूरज की ज़ुबा होती............ न है कोई बड़ा न ही महान सब बराबर, बस इंसान ……।.”
आप पढ़ें इस कविता को........



काश सूरज की ज़ुबां होती..


काश सूरज की ज़ुबां होती.
वो बताता हमको कि
प्रकृति नहीं करती अंतर
उसने दिया है सबको
अपना अपना वजूद
वो बताता हमको
इंसान की परिभाषा में
जितना पुरूष है शामिल
उतना ही स्त्री भी है शामिल
न है कोई प्रथम न है कोई द्वितीय
न है कोई बड़ा न ही महान
सब बराबर, बस इंसान
दया, ममता, करूणा, सेवा
विश्वास, आत्मविश्वास, सहनशीलता, आक्रामकता
और लज्जा हर एक के पास
बस बराबर बराबर
जी हां तो सूरज की ज़ुबां होती
तो वो बताता हमको
एक जननी है तो एक जनक
पर मतलब ये नहीं एक कमजोर एक ताकतवर
वो बताता हमको
प्रकृति के उपहार का मत उड़ाओ उपहास
आखिर सदियों से ये ख्याल ही तो है हमारा
“राम पेड़ पर चढ़ता है, हवाईजहाज उड़ाता है “
और “कुसुम पानी लाती है, गुड़ियों से खेलती है “
हां यदि वह बोलता तो
शायद चीख-चीख कर कहता
हमसे
मैं अकेला देख रहा हूं सदियों से ये झंझावात...
कहीं इससे पहले कि मैं हो जाऊं
निस्तेज, निष्प्राण
कोई तो आओ एकबार,
एक साथ, एक पल के लिए
और दे दो प्रकृति के निर्णय को सार्थकता
नर नारी में कोई नहीं भगवान
दोनो एक समान बस इंसान
मैंने चुना सूरज को बोलने के लिए
मैं चुन सकती थी चांद भी..
पर चांद अंधेरे की गफ़लत में खो जाता
और शायद कह देता उलूल-जुलूल
लेकिन सूरज है जो संर्पूण प्रकाश के साथ देख रहा है
शाश्वत सत्य
इसलिए काश उसकी ज़ुबां होती
वो बताता हमको
सिर्फ सत्य...............

1 comment:

Anonymous said...

रिचाजी, वाह क्या बात है...अति सुन्दर....औऱ गिरीन्द्र जी धन्यवाद जो आपने अपने ब्लॉग पर यह कविता लगायी।
आदिकाल से ही यह सब देखा गया है। यदि पतिदेव स्वर्गवासी होते थे तो पत्नियां ‘सती’ होते हुए अग्निदेव को अंगीकार करती थी लेकिन पत्नी यदि स्वर्गवासी हो तो पतिदेव के लिए ऐसा कोई रश्म नहीं। नैतिकता और आचरण की कसौटी भी हमेशा से पक्षपात और भेदभावपूर्ण रहा है...यह हमेशा ‘त्रिया चरित्र’ को ही परखने, उस पर निगाह रखने और टिप्पणी देने के लिए रखा जाता है, मर्द के लिए नैतिकता के पैमाना का स्वरुप ही बदल जाता है......यह सब शायद इसलिए है कि हम अपने पूर्वजों द्वारा बतलाए गए बातों पर चलते आए हैं जब समाज के नीति-निर्धारक पुरुष हुआ करते थे...जननी कहकर पूजने की बात कहने के बावजूद भी औरतें वस्तु सदृश हुआ करती थीं (मैं पुरातन नियमों को गलत कहने में अक्षम हूं परन्तु मेरा अल्पज्ञ मस्तिष्क इतना जरूर महसूस करता है कि लिंगभेद पर आधारित समाज में बने नैतिक संविधान में संशोधन की सख्त जरूरत है) …और अब दहेज या कई ऐसे कारणों से हमेशा से ममतामयी मूर्ति पृथ्वी-सा स्तब्ध सिर्फ दंश और दर्द झेलनेवाली यह सर्व सुलभ परिचारिका भी हमें स्वीकार्य नहीं जिसे जन्म से पहले ही मृत्यु दे दी जाती है... बस इतनी संख्या में रखो कि हम जन्म ले लें और हमारी जरुरतें भर निभ जाएं...उफ्फ..! खुदगर्जी की पराकाष्ठा.....
सूरज को आपने द्रष्टा बनाया है....जो अनंतकाल से सबकुछ देख रहा है....जो शायद इतना सबकुछ देखकर अब अपने गुस्से को और प्रचंड ऊष्णता में बिखेर रहा है...पता नहीं कब शांत हो...