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कोसी का इलाका यदि बाढ़ और बालू से अभिशप्त है तो यकीन मानिए यहां कुछ
ऐसा भी है, जिसे देख और सुनकर आप मस्ती के आलम में झूम सकते हैं। तो
चलिए, आपको ले चलते हैं कोसी के उन गावों में जहां आप रंग-बिरंगे,
चटकीले, मस्ताने या फिर गोसाईं जैसै गीतों का लुत्फ उठा सकें...।
फणीश्वर नाथ रेणु ने तो अपनी कृतियों ऐसे लोकगीतों को खूब उकेरा है। रेणु
के शब्दों में "ऐसे कईगीतों को सुनते समय "देहातीत" सुख का परस सा पाया
है और देह यंत्र मे "रामुरा झिं झिं" बजने लगता है .......।"
"विदापत-नाच" हो या फिर "भगैत" (भगत), आज भी यहां मौजूद है। विदापत-नाच
तो अब केवल सहरसा जिले में सिमट गया है लेकिन "भगैत" (भगत) आज भी कोसी
के तकरीबन सभी जिलों में खूब गाया और बांचा जाता है। दरअसल भगैत (भगत) एक
ऐसा लोकगीत है, जिसमें गीत के संग-संग डॉयलॉग भी चलता रहता है। कहानी के
फार्म में गायक अपने दल के साथ भगैत (भगत) गाता है। इसे सुनने के लिए
झुंड के झुंड लोग उस जगह जमा होते हैं जहां भगैत होता है। 10 से 11 लोगों
की एक टीम होती है जो भगैत गाते हैं। टीम के प्रमुख को "मूलगैन" कहते
हैं। अर्थात मूल गायक...। मूलगैन कहानी प्रारंभ करता है और फिर समां बंध
जाता है। हारमोनियम और ढ़ोलक वातावरण में रस का संचार करते हैं। दाता
धर्मराज, कालीदास, राजा चैयां और गुरू ज्योति, भगैत के मुख्य पात्र होते
हैं। ये पात्र तो हिन्दू के लिए होते हैं। मुसलमानों के लिए "मीरा साहेब
" प्रमुख पात्र माने जाते हैं। मुस्लिम के लिए होने वाले भगैत को "मीरन"
कहा जाता है।
यहां बोली जाने वाली ठेठ मैथिली में भगैत और मीरन गाया जाता है। गौर करने
लायक बात यह है कि इस कथा-गीत में अंधविश्वास सर-चढ़कर बोलता है। मसलन
मूलगैन पर भगवान आ जाते हैं। वह जो कुछ बोल रहा है, वह ईश्वर-वाणी समझी
जाती इस कार्यक्रम बलि-प्रथा और मदिरा की खूब मांग होती है।
48 घंटे तक अनवरत चलने वाले इस कार्यक्रम का आयोजन अक्सर गांव के बड़े
भू-पति हीं करते हैं। क्योंकि इसके आयोजन में अच्छा-खासा खर्च होता है।
अक्सर फसल कटने के बाद हीं ऐसे आयोजन होते हैं। क्योंकि उस वक्त किसान के
पास अनाज और पैसे कुछ आ ही जाते हैं। हाल ही मैं पूर्णिया जिला के धमदाहा
में "भगत-महासम्मेलन" का आयोजन हुआ था। कोसी के अलावा अन्य जिलों से भी
कलाकार इस सम्मेलन में पहुंचे थे। किन्तु जिस उत्साह से कोसी में भगैत को
मंच मिलता आया है,वह अन्य जगहों में नहीं दिखता है। किसानों के बीच इसके
लोकप्रिय होने का मुख्य कारण यह है कि यहां के गावों में अंधविश्वास का
बोलबाला आज भी काफी है।
वैसे जो भी हो, भगैत एक कला के रूप में अलग हीं दुनिया में बसता है। यहां
के लोग-बाग में यह रच-बस गया है। मूलगैन (मूल गायक-टीम लीडर) कहता है न-
" हे हो... घोड़ा हंसराज आवे छै............
गांव में मचते तबाही हो...............
कहॅ मिली क गुरू ज्योति क जय....."
हिन्दी अनुवाद-
( सुनो सभी, घोड़ा हंसराज आने वाला है,
गांव में मचेगी अब तबाही,
सब मिलकर कहो गुरू ज्योति की जय )
5 comments:
कोई पूरा गीत भी सुनाते ।
आप जो भी हैँ, महान हैँ. मैने अपना बचपन कोसी बाँध के बीच मे बसा हुआ एक बनैनियाँ नामक गाँव मे बिताया हुआ है. भैगैत का आनन्द जीवन के हरेक पहले दुसरे महीने मे लिया करता था. मानिए या नहीँ मानिए भगैत का याद करते करते मेरा अभी इस वक्त रोआँ खड़ा हो गया है. महोदय कोन गाम घर अछि अपनेक. कनि विस्तार सँ बताबु ?? अपनेक डा. पद्मनाभ मिश्र
झा जी
कंजूसी न करिए, पिटारी का मुँह और खोलिए, सब बाँट दीजिए, बचाकर क्या करिएगा.
सही कहा आपने.....पढ़कर अपना क्षेत्र याद आ गया....मैनें भी देखा है बड़े नजदीक से...लेकिन बचपन में। भगैत होते वक्त बच्चे बहुत जमा हो जाते हैं चारो ओर से....
jhaji, humro batau kata gaon bhel ahan ke, hum parsa, p.o. barahra kothi sa chhi
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