मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Saturday, March 03, 2007
बदल रहा मेरा सिरियापुर...(दुसरा भाग)
विजय भाई समय के पाबंद है,गांव के हाल्-ए-दास्तां को बयां कर रहे हैं. यह उनकी तीसरी पाती है. पहले में आपने पढा उनके गांव सिरियापुर की स्थिती .इसबार वे कुछ अलग अंदाज मे गांव को रख रहे हैं. गौरतलब है कि सिरियापुर बिहार के मधुबनी जिला में आता है. तो आनंद उठाइए वहां के जीवंत रिपोर्ट का.....
अगली सुबह देखा बाबूजी मजदूरों का नाश्ता-पानी लेकर खेत पर जा रहे हैं, मैं उनसे सारा कुछ लेते हुए बोला, "आज खेत मुझे ही जाने दीजिए"। चल पड़ा मैं.. पहुंच गया खेत। किसी खेत में गेहूं की बालियां लहरा रही थी, किसी में मसूर का घना गद्देदार गुच्छा जमीन पर हरी कालीन की तरह बिछा था, किसी खेत में आलू बुआई की धारियां लगी हुई थी।
"मालिक आप ?" कहते हुए बदरी और बिल्टू नाश्ता-पानी मुझसे ले लिया और लगा मेड़ पर बैठकर खाने। मैं उस जुते हुए खेत में ढ़ेले पर ऐसे ही बैठ गया और चारों ओर निहारने लगा- बगल में मज्जर से लदे आम के पेड़ जिसकी खूश्बू दूर तक फैली थी, वहीं पेड़ों के नीचे कई भैंसवाह भैंस पर लेटा सुरीले तान छेड़ रहा था, भैंस मस्ती में चरती जा रही थी। लोग धोती या लूंगी पहने और सर पर गमछे का पाग बांधे खेतों में काम कर रहे थे। मुझसे दायीं वाले खेत की जुताई ट्रैक्टर से हो रही थी जबकि बायीं ओर हल-बैल चल रहा था-- यह सबकुछ देखकर बहुत अच्छा लग रहा था।
घर लौट रहा था तो देखा लोग ताश के पत्तों पर बैठ चुके थे, इन्हें बड़ी आसानी से अपना दर्शक मिल जाता है, कितना फुर्सत दिखता है यहां इन लोगों के पास, इन्हीं लोगों को दिल्ली में बस स्टापों पर देखा था, बैठ कर गप्प मारने की छोड़ो, "गुड मॉर्निंग" से ज्यादा कहने की फुर्सत न थी कि कहीं दफ्तर जाने में देर न हो जाए और यहां... और कहते हैं "जिंदगी को स्वाद लेकर जीने दो यार..."। वहीं बच्चों को गुल्ली-डंडे, कबड्डी और कांच वाली गोलियों से खूब खेलते देखा... शाम में मैदान में क्रिकेट भी खेल रहे थे बच्चे जिसमें सचिन, सौरभ, सहवाग, राहुल, धोनी...कहकर एक-दुसरे को पुकार रहे थे।
शाम में बिल्टू-बदरी के साथ गया हाट। बहुत कुछ देखने के बाद यह दोनों मुझे ले गया अड्डे पर, जहां इकट्ठी भीड़ के बीच भुजिया और तरुआ के साथ रखी थी 'रामरस' यानी ताड़ी से भरी बोतलें... शायद यही है वो रस जिसपर ये दिवाने अपना सारा गम निसार करते हैं। अड्डे पर कई चेहरे ऐसे दिखे जिसे दिल्ली में रम और मैकडॉवेल की बोतलें तोड़ते देखा था और यहां ताड़ी..।
शाम में गए नाटक देखने...कोई 12-15 चौकी का बना स्टेज। नाटक शुरु... 'अल्हा-ऊदल'...रसिक डूब गए। पीछे से आवाज आई, "बंद कर ये रोना-धोना, जरा मल्लिका सेहरावत को भी स्टेज पर आने दो" सहमति भरी दूसरी आवाज आई, "पैसा देकर क्यों बुलाया उसे, कुछ देखें भी तो" ... बस...स्टेज पर अवतरित हुई कुल्हे मटकाती हुई तारिका। शुरु हो गया "बीड़ी जलाइले जिगर से पिया..." वाह क्या बात है... नौजवानों की थिरकन, सीटियों की गुंज, बूढ़ों की चुटकी और बच्चों की ताली साथ-साथ...10, 20 और 50 के नोटों की बरसात होने लगी उस मल्लिका पर...
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1 comment:
ab aap reporter hain to aake lekhan me jeewntata hona swabhaawik hn.. bahut achcha chitran hai gaanw ke babdlte mahol ka.. aur aapko bhi HOLI ki rang gulaal bhari shubhkaamnaayen..
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