Wednesday, October 25, 2006

सातों दिन भगवान के, क्या मंगल, क्या पीर...

निदा फ़ाज़लीशायर और लेखक


मेरा एक दोहा है-

"सातों दिन भगवान के, क्या मंगल, क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक, भूखा रहे फक़ीर."

इस दोहे को लिखे हुए कई साल बीत गए थे. आज अचानक याद आ गया. इसके याद आने की वजह महाराष्ट्र के पावरलूम के शहर मालेगाँव में आठ सितंबर को हुए आतंकवादी धमाके हैं. जिनकी लपेट में आए 32 लोग मौत के घाट उतर गए.
100 से अधिक घायलों में बड़ी संख्या उन भिखारियों की बताई गई जो शबे बरात के दिन, दूर-दूर से चल कर, वहाँ की रहमानी मस्जिद के सामने और मस्जिद के थोड़े फ़ासले पर बड़ा कब्रिस्तान के इर्द-गिर्द बैठे थे.
जो भीख माँग कर रोटी-रोज़ी चलाते हैं वे धर्मों के बँटवारों को नहीं मानते. उनके लिए मंदिर के भगवान, मस्जिद के रहमान या मालेगाँव के बड़ा कब्रिस्तान में कब्रों के निशान...सब बराबर होते हैं.
राजनीति भिखारियों की इस धर्मनिर्पेक्षता की विशेषता से परिचित होती है इसीलिए कभी उनके माथे पर तिलक लगाकर रामसेवक बना दिया जाता है. कभी उनके सर पर टोपी रखकर, अल्ला हो अकबर का नारा लगवाया जाता है और कभी राजनीतिक शक्ति के प्रदर्शन के लिए उन्हें गाँव खेड़ों से बुला लिया जाता है.
जिधर भी रोटी बुलाती है, ग़रीबी उधर चली जाती है. ग़रीबी की दुनिया खाते-पीते लोगों की दुनिया की तरह सीमाओं और सरहदों में नहीं बँटती. इसकी दुनिया रोटी से शुरू होती है और रोटी पर ही समाप्त होती है. वह ख़ुदा को मूरत या कुदरत के रूप में नहीं सोचती.
इस ग़रीबी के लिए आसमान और ज़मीन दो बड़ी रोटियों के समान हैं जिनमें उसकी अपनी रोटी भी छुपी होती है, जिसको पाने के लिए कभी वह भजन गाती है, कभी कलमा दोहराती है और कभी जीसस की प्रतिमा के आगे सर झुकाती है.

ग़रीबी का एक शायर

ताजमहल की नगरी के 19वीं सदी के शायर मियाँ नज़ीर,
ग़ालिब के सीनियर समकालीन थे. आदमी के चिंतन और दृष्टि में उसका वर्ग झाँकता नज़र आता है. इसी वर्ग के लिहाज़ से ग़ालिब की चितंन के केंद्र मौत, ज़िंदगी, ख़ुदा और कायनात थे जबकि नज़ीर जो घर-घर जाकर बच्चों को पढ़ाने वाले उस्ताद थे, उनके विषय रोटी, मुफ़लिसी और ख़ैरात थे...वह खाते-पीते लोगों की दुनियाँ में भूखों, नंगों और फक्कड़ों के शायर थे.
उनके इसी अपराध के कारण एक लंबे समय तक साहित्य की आलोचना ने उन्हें मुँह नहीं लगाया.
कबीर की तरह नज़ीर को भी इतिहास ने बहुत देर से अपनाया. नज़ीर जन-कवि थे और साधारण जन की तरह उनकी क़िस्मत में भी ग़रीबी के रास्ते में भागती-दौड़ती रोटी का पीछा करना था. ग़ालिब पेट भरे दर्शन के फ़नकार थे और नज़ीर भूख में रोटी की तलाश के कलाकार थे.
ग़ालिब फरमाते हैं-"दिल ढूँढ़ता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिनबैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए"
ग़ालिब को प्रेमिका की कल्पना के लिए फ़ुरसत की दरक़ार थी और नज़ीर की शायरी ग़रीबी के रोग से बीमार थी.
नज़ीर के रोटीनामे की पंक्तियाँ हैं-"पूछा किसी ने यह किसी कामिल फक़ीर सेयह महरो माह हक़ ने बनाए हैं काहे केवह सुन के बोला बाबा,

ख़ुदा तुम को ख़ैर देहम तो न चाँद समझें,

न सूरज ही जानतेबाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ."
किसका हाथ
आंतक कौन फैलाता है, इसके पीछे किसका हाथ है, कौन इसके आगे है, कौन इसके साथ है... ये ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तरों की तलाश सोचने वालों को मुसलसल भटकाता रहता है. इन सवालों के जवाब सब अपने-अपने सीमित दायरों में टटोलते नज़र आते हैं. कोई इस्लाम को इसका दोषी मानता है, कोई इसे ईसाइयत के रूप में पहचानता है.
कोई धर्म के नाम पर, अमरीका, लंदन, कश्मीर आदि पर निशाना लगाता है और कोई इसके जवाब में, हंसती-गाती ज़मीन को अफ़गानिस्तान और बग़दाद बनाता है. सबके पास अपने तर्क हैं अपनी दलीलें हैं.
जिसकी पब्लिसिटी जितनी अच्छी है, उसकी दलील उतनी ही सच्ची है. पिछले दिनों मैंने एक गज़ल लिखी थी, उसका मतला यूँ है-
"जैसी जिसे दिखे यह दुनिया,वैसी उसे दिखाने दोअपनी-अपनी नज़र है सबकीक्या सच है, यह जाने दो"
यह सच, जिसे मैंने ‘जाने दो’ के साथ जोड़ा है, सदियों से मुट्ठी-भर लोगों के शोषण का शिकार है...इस सच को छुपाने के लिए, बड़ी-बड़ी स्कीमें बनाई जाती हैं, रंग-बिरंगी तस्वीरें छपवाई जाती हैं, नई-नई दीवारें ढहाई जाती हैं, तरह-तरह की नकाबें पहनाई जाती हैं और इस तरह आम आदमी की सोच की आज़ादी पर कुंडी चढ़ाई जाती है.
हमारा समाज चरवाहों और भेड़ों का समाज है. चरवाहे गिनती में भले ही कम हों लेकिन उनकी हाँकने वाली लकड़ियों का ख़ौफ़ ज़्यादा होता है. भेड़ें गणना में चाहे कितनी ही अधिक हों, उनका धर्म चरवाहों के पीछे चलना होता है. वे यूं ही चल रही हैं. सदियों से चल रही हैं. क्योंकि उन्हें चुप-चुप चलने वाली भेड़ उसी ईश्वर, गॉड या ख़ुदा ने बनाया है, जिसने चरवाहे को बनाया है.
ख़ुदा के हुक्म से इनकार, नरक का द्वार है. हमारे समाज में धर्मों ने हमेशा इस महाशक्ति को डिक्टेटर के रूप में सोचा है और प्रचारित किया है. इस सोच के प्रचार ने आदमी के संघर्ष को नपुंसक बना दिया है. इस नपुंसकता के ख़िलाफ़ जो आवाज़ उठाता है, मुजरिम ठहराया जाता है.
इस ज़ुर्म का आरोप मेरे लेखन पर भी लग चुका है. मेरे कई शेरों और कविताओं पर काफी ले-दे हुई है उनमें से एक शेर यूँ है-
"खुदा के हाथों में मत सौंप सारे कामों को बदलते वक़्त पर कुछ अपना इख़्तियार भी रख"
'अपने इख़्तियार' की बात, रब्वूल आलमीन (सारे आलमों का ख़ुदा) के समक्ष गुस्ताख़ी समझी जाती है. ईश्वर के इसी तानाशाह के रूप के आदेशानुसार, द्रोपदी दाँव पर लगाई जाती है, दारा शिकोह को मौत की सज़ा सुनाई जाती है और पति के साथ ज़िंदा पत्नी जलाई जाती है. और जब इसके विरोध में आवाज़ उठाई जाती है, तो मराठी संत कवि तुकाराम की पोथी उनसे छीन कर नदी में बहाई जाती है.
कौन है वह
कुछ साल पहले मुंबई के कई इलाक़े, शराब के ग़ैर-क़ानूनी अड्डों में जगमगाते थे. वहाँ स्कॉच से ठर्रे तक हर प्रकार की शराब मिलती थी...शराबों के ब्रांडों के हिसाब से, पीने वालों की सोचें भी ऊँची-नीची होती थीं.
अलग-अलग मेज़ों को सजाए लोग नशा कर रहे थे. उन्हीं में एक मैं भी था. स्कॉच वाली मेज़ से आवाज़ आई "माई डियर, गॉड इज़ ए कॉन्सेप्ट, वह दिखाई न देकर हर जगह है."
इंडियन व्हिस्की वाले इसी विषय पर बोल रहे थे, "वह भले ही नज़र न आए लेकिन इस पर विश्वास करने से मन को सुकून मिलता है."
इन्हीं में एक फ़कीर जो अपनी दिन भर की थकन मिटाने को ठर्रे के साथ बैठा था, ख़ामोशी से दोनों तरफ़ की बातें सुन रहा था…सुनते-सुनते वह एकदम झल्लाकर बोला, "भाई साहब मैं देर से सुन रहा हूँ, इधर वाले कह रहे हैं ईश्वर दिखाई नहीं देता. उधर वाले बोलते हैं वह नजर नहीं आता. मेरी राय तो यह है कि वह केवल विचार है और इसलिए दिखाई नहीं देता क्योंकि उसने जैसी दुनिया बनाई है. ऐसी दुनिया बनाकर वह किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं है. इसीलिए वह हमेशा छुपा रहता है."
ग़रीबी किसी रूप की हो, किसी इलाक़े की हो, वह एक बैंकड्राफ्ट की तरह है जिसे हर कोई जेब में डाले घूमता है और जहाँ ज़रूरत होती है उसे कैश करा लेता है.
लीडर उसे कैश कराके कुर्सी पाता है, चित्रकार उसे केश कराके चित्र बनाता है, शायर/कवि उसे केश कराके मानवता का परचम लहराता है. ग़रीबी सब की ज़रूरत है. इसके होने से ही समाज की चमक-दमक है. दुनिया में चहल-पहल है.
प्रेमचंद्र की एक मशहूर कहानी 'कफ़न' के बारे में एक दलित आलोचक की टिप्पणी याद आती है. उसने कहा था प्रेमचंद दलितों के मध्यमवर्गीय हमदर्द थे. स्वयं दलित नहीं थे, इसीलिए पत्नी और बहू की मौत से उगाए चंदे को शराब बनकर पीते हैं और आलू भूनकर खाते हैं. इस सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज़ वही उठाते हैं....
मालेगाँव की ख़बर पढ़कर मैंने एक गज़ल कही थी, उसका एक शेर है-
"कहीं की भूख हो हर खेत उसका अपना हैकहीं की प्यास हो आएगी वह नदी की तरफ़."

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