Sunday, June 04, 2006

एक कविता ..ओह्! मेरी ज़ुबानी.

टेलिफोन बुथों का अध्धयन जारी है.इसी बीच बुथों की रंग-बिरंगी आत्मा मेरे सामने नाचने लगी तो मेरा एक "मन्" जो खुद को कवि भी कभी-कभार कहता है.....कुछ कहने को मचल उठा..तो अब वह आपके सामने है-



"वज़ीरपुर के बुथ हैं कुछ अजीबसामने से कुछ और ,और पिछे कुछ और,
एक रंगीला बुथ नाम है-शर्माजी की बुथचलाते हैं राजुजी..है जी सिवान के
जैसा है नाम बुथ का वैसे हैं राजुजी..
टेलिफोनों के तारों..जो है दुर्-दुर तक फैला..
कराते है बात दरभंगा भी,तो सहरसा भी..
बुथ के पिछवाड में है इनका सी.डी. का दुकान
शाम को लगती है यहाँ भीड प्रवासियों की...
भोझपुरी,देसी और रंगीन सिनेमाओं के सी.डी.ये बेचते..
क्यों न हैं जो ये शर्माजी !
बुथ के संग इनके ये दुकान की अजीब है कहानी
कहते हैं कुछ और करते कुछ और शर्माजी,
रंगीली बुथ की ये है छोटी कहानी..कैसी लगी मेरी ये छुपे आत्मा की "रंगीन्" ज़ुबानी...."

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