जींस, क्या केवल पहनावा भर है या फिर ड्रेस क्लचर में क्रांति का दूतक ? यह सवाल अभी माथे में उबाल मार रहा है। जहां तक मेरी बात है तो आठवी में पढ़ाई के दौरान जींस से दोस्ती हुई, ऐसी दोस्ती जिसे मैले से भी दोस्ती हो गई। एक नहीं दो नहीं पांच नहीं महीने भर पहनने के बाद भी जींस मुस्कुराता ही रहा, कभी यह नहीं कहा, भई- कभी हमें भी पानी में डुबोओ धूप में नहलाओ, कभी नहीं। प्यारी सखी की तरह हमेशा संग-संग चलने की कसमें खाता रहा जींस।
वीकिपीडिया पर जाकर दुरुस्त हुआ तो पता चला कि अमेरिका से चलकर जींस ने कैसे दुनिया भर के देशों की यात्रा की और घर-घर में पहंच बनाई। इसने कभी महिला-पुरुष में अंतर नहीं देखा इसे तो बस हर घर में अपनी जगह बनानी थी। 50 के दशक में अमेरिकी युवा वर्ग का यह सबसे पसंदीदा ड्रेस बन गया। नीले रंग के जींस के दीवानों को यह पता होना चाहिए कि ब्लू जींस को अमेरिकी युवा संस्कृति का द्वेतक भी माना जाता है।
दिल्ली-मुंबई से लेकर दरभंगा-पूर्णिया, कानपुर जैसे शहरों और देहातों तक जींस ने जिस तेजी पांव पंसारे हैं, वह काबिले-गौर है। बिना किसी तामझाम के जींस ने हर घर में दस्तक दी। कहीं महंगे ब्रांड के तले तो कहीं बिना ब्रांड के। एक समय जब पूर्वांचल के लोग दिल्ली में रोजगार के लिए आते तो जाते वक्त पुरानी दिल्ली की गलियों से ट्राजिंस्टर , सुटकेस आदि ले जाते और अब समय के बदलाव के साथ उनके बक्शे में जींस ने भी जगह बना ली। मटमेल धोती-लुंगी के स्थान पर जींस और ढीला-ढाला टी-शर्ट कब हमारे-आपके गांव तक पहंच गया पता ही नहीं चला।
कितना बेफिक्र होता है जींस, लगातार पहनते जाओ और फिर जोर से पटकने के बाद इसे पहन लो, इसकी यारी कम नहीं होगी। जितनी पुरानी जींस, उससे आपकी आशिकी उतनी ही मजबूत बनती जाती है। रंग उड़े जींस की तो उसकी मासूमियत और भी बढ़ जाती है।
जींस की कथा में न दलित आता है न सर्वण, यह तो सभी को सहर्ष स्वीकार कर लेता है। इसे राजनीति करने नहीं आता और न ही केवल एसी कमरे या फिर लक्जरी कारों की सवारी इसे पसंद है। यह शहरों में उतनी ही मस्ती कर लेता है जितनी धूल उड़ती सड़कों पर। आज पुरानी जींस को पहनते वक्त कुछ पुरानी यादें फिर से ताजा हो गई, जिसमें धूल के साथ फूल की कुछ पंखूरियां भी है।
मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
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Friday, June 19, 2009
Thursday, June 18, 2009
मेरा फॉस्ट फ्रैंड, शायद अब इस दुनिया में न रहे.....
सुबह के चार बजे, वह उठ जाते थे आधे घंटे में तैयार होने के बाद चकाचक धोती-कुर्ते में सुबह की सैर पर उनका निकलना एक ध्रुव सत्य हुआ करता था। शेक्सपियर से लेकर अंग्रेजी साहित्य की कई नामचीन हस्तियों की लाइनों को वे गुनगुनाते हुए सड़कों पर चहलकदमी किया करते थे, लेकिन आज वह ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। इस समय वह बिस्तर पर जीवन रक्षक यंत्रों के सहारे सांस ले रहे हैं, जिंदगी से उनकी अपनी जंग, जहां हमें और उनके निजी डाक्टरों को केवल मौत ही दिख रही है।
मैं अपने निकट संबंधियों में जिनसे फॉस्ट फ्रैंड की तरह बर्ताव करता हूं, उसमें केवल और केवल मेरे नानाजी ही हैं। परसों खबर आई कि उनकी तबियत अचानक खराब हो गई, फिर खबर आई कि डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है। मैं कुछ देर के लिए अचेत सा हो गया। ऑफिस जाना था लेकिन गया नहीं, चुपचाप...नानाजी का चेहरा याद आने लगा, मुस्कुराते हुए शेक्सपियर की बातों को बताते हुए उनका कहना कि-"When sorrows come, they come not single spies, but in battalions". मुझे तंग करने लगा..। मुझे अंग्रेजी से थोड़ी बहुत नजदीकी और मन में किसी बात को नहीं छुपाने की कला नानाजी ने ही सीखाया, अभी दो दिनों से उन्हीं के याद में खोया हूं।
वह इस समय बेहद कठिन दौर से गुजर रहे हैं, उनके पास पहुंचे लोगों का कहना है कि उनकी मौत उनके लिए जरूरी है आखिर वे कितना कष्ट सहेंगे...। बुधवार दोपहर जब वे होश में आए तो उन्होंने मुझे याद किया, फोन पर ममेरी बहन ने उनसे मेरी बात करवाई। जब वे बात कर रहे थे तो जिंदगी में पहली बार मैंने उनकी थकी आवाज सुनी। वे बोले- " मैं अब तुम्हारी शादी में शामिल नहीं हो पाऊंगा, मैं अब मरना चाहता हूं....प्लीज, तुम मत आना, मैं इस स्थिती में तुम्हें देखना नहीं चाहता.., तुम्हें रोते नहीं देख सकता और खुद भी रोना नहीं चाहता। मैं मरना चाहता हूं, मौत ने मेरे कमरे का दरवाजा नॉक कर दिया है। बौआ, बस अब दरवाजा खुलना बांकी है।"
फोन रखते ही फफक-फफकर रोने लगा..मैं, एक शब्द नहीं बोल पाया....मौत को नजदीक से सुनने को बाद लगा कि एक बारगी ही मुझसे जिंदगी सबकुछ छिनने के लिए उतारू हो गई है। नानाजी का बड़ा सा कमरा, आंखों में तैरने लगा। हमलोंगो के लिए बाजार से रसगुल्ला मंगावाकर इसी घर में ऱखते और हम बच्चा पार्टी उनेक बड़े से कैंपस में दौड़ते-धूपते खूब मिठाइयां दबाया करते। आज याद आ रहा है वह कमरा, उसका बरामदा, वह कुर्सी जहां वह बैठा करते। महसूस हो रहा है मानो बरामदे पर आरामकुर्सी पर बैठकर वह कह रहे हों-
Love's not Time's fool, though rosy lips and cheeks
Within his bending sickle's compass come:
Love alters not with his brief hours and weeks,
But bears it out even to the edge of doom
If this be error and upon me proved,
I never writ, nor no man ever loved
वे इन सारी पंक्तियों को हमें खेल में समझा देते और हमारी जुबां भी उन्हीं की तरह बोलने लगती। अब शायद मैं उनसे नहीं मिल पाऊंगा, उनकी आवाज में शेक्सपियर की लाइनें मैं दोहरा नहीं पाऊंगा...ऐसे समय में ही कभी-कभी महसूस होता है कि यार, यादें कितनी कमीनी चीज होती है....नानाजी की याद ने तो शेक्सपियर की पंक्तियों से भी कुछ देर के लिए नफरत करना सीखा दिया।.....
मैं अपने निकट संबंधियों में जिनसे फॉस्ट फ्रैंड की तरह बर्ताव करता हूं, उसमें केवल और केवल मेरे नानाजी ही हैं। परसों खबर आई कि उनकी तबियत अचानक खराब हो गई, फिर खबर आई कि डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है। मैं कुछ देर के लिए अचेत सा हो गया। ऑफिस जाना था लेकिन गया नहीं, चुपचाप...नानाजी का चेहरा याद आने लगा, मुस्कुराते हुए शेक्सपियर की बातों को बताते हुए उनका कहना कि-"When sorrows come, they come not single spies, but in battalions". मुझे तंग करने लगा..। मुझे अंग्रेजी से थोड़ी बहुत नजदीकी और मन में किसी बात को नहीं छुपाने की कला नानाजी ने ही सीखाया, अभी दो दिनों से उन्हीं के याद में खोया हूं।
वह इस समय बेहद कठिन दौर से गुजर रहे हैं, उनके पास पहुंचे लोगों का कहना है कि उनकी मौत उनके लिए जरूरी है आखिर वे कितना कष्ट सहेंगे...। बुधवार दोपहर जब वे होश में आए तो उन्होंने मुझे याद किया, फोन पर ममेरी बहन ने उनसे मेरी बात करवाई। जब वे बात कर रहे थे तो जिंदगी में पहली बार मैंने उनकी थकी आवाज सुनी। वे बोले- " मैं अब तुम्हारी शादी में शामिल नहीं हो पाऊंगा, मैं अब मरना चाहता हूं....प्लीज, तुम मत आना, मैं इस स्थिती में तुम्हें देखना नहीं चाहता.., तुम्हें रोते नहीं देख सकता और खुद भी रोना नहीं चाहता। मैं मरना चाहता हूं, मौत ने मेरे कमरे का दरवाजा नॉक कर दिया है। बौआ, बस अब दरवाजा खुलना बांकी है।"
फोन रखते ही फफक-फफकर रोने लगा..मैं, एक शब्द नहीं बोल पाया....मौत को नजदीक से सुनने को बाद लगा कि एक बारगी ही मुझसे जिंदगी सबकुछ छिनने के लिए उतारू हो गई है। नानाजी का बड़ा सा कमरा, आंखों में तैरने लगा। हमलोंगो के लिए बाजार से रसगुल्ला मंगावाकर इसी घर में ऱखते और हम बच्चा पार्टी उनेक बड़े से कैंपस में दौड़ते-धूपते खूब मिठाइयां दबाया करते। आज याद आ रहा है वह कमरा, उसका बरामदा, वह कुर्सी जहां वह बैठा करते। महसूस हो रहा है मानो बरामदे पर आरामकुर्सी पर बैठकर वह कह रहे हों-
Love's not Time's fool, though rosy lips and cheeks
Within his bending sickle's compass come:
Love alters not with his brief hours and weeks,
But bears it out even to the edge of doom
If this be error and upon me proved,
I never writ, nor no man ever loved
वे इन सारी पंक्तियों को हमें खेल में समझा देते और हमारी जुबां भी उन्हीं की तरह बोलने लगती। अब शायद मैं उनसे नहीं मिल पाऊंगा, उनकी आवाज में शेक्सपियर की लाइनें मैं दोहरा नहीं पाऊंगा...ऐसे समय में ही कभी-कभी महसूस होता है कि यार, यादें कितनी कमीनी चीज होती है....नानाजी की याद ने तो शेक्सपियर की पंक्तियों से भी कुछ देर के लिए नफरत करना सीखा दिया।.....
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