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Thursday, April 03, 2008

आजमगढ़ में शास्त्रीय संगीत को समर्पित एक गांव



भले ही आधुनिकता के नाम पर इस समय पाश्चात्य संगीत का बोलबाला हो लेकिन उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के हरिहरपुर गांव का बच्चा-बच्चा आज भी शास्त्रीय संगीत का न सिर्फ दीवाना है बल्कि इसे जीवित रखने के लिए रात दिन मेहनत भी करता है।


सूर्य की पहली किरण जब अपनी लालिमा के साथ हरिहरपुर गांव की गलियों में मचलने लगती है, तो इस गांव के लोग उसका स्वागत अपने वाद्य यंत्रों के उन स्वरों से करते हैं, जो उन्हें अपने पुरखों से विरासत में मिला है। गांव के बच्चे-बच्चे के हाथों में किताब की जगह वाद्य यंत्र होता है। और शुरू होता है रियाज का सिलसिला।


अपनी विरासत को संजोने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कृष्ण मुरारी मिश्र की बूढ़ी आंखों में अब शास्त्रीय संगीत को लेकर निराशा सी होने लगी है, उनका मानना है कि राजा-महाराजाओं के जमाने में शास्त्रीय संगीत अपने चरम पर था लेकिन नई पीढ़ी को इसमें उनको भविष्य कम दिख रहा है। मिश्र आजकल छोटे-छोटे बच्चों को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देकर अपना समय गुजारते हैं।


शास्त्रीय संगीत शदियों से इस गांव के रगों में दौड़ रहा है। इस गांव ने कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कलाकारों को जन्म दिया है। प। छन्नुलाल मिश्र जिनका नाम शास्त्रीय गायकी की दुनिया में आज भी बड़े सम्मान से लिया जाता है, इसी मिट्टी के सपूत हैं। इनके अलावा जितने भी बड़े कलाकार हैं वे किसी न किसी रूप में इस गांव से जरूर जुड़े हैं।


तबला सम्राट गुदई महाराज की यहां ससुराल है तो किशन महाराज कि यहां रिश्तेदारी। ठुमरी गायिका गिरजा देवी का भी इस गांव से गहरा नाता है। ऐसे सपूतों को जन्म देने वाले इस गांव से लगता है शास्त्रीय संगीत अब रूठने वाली है क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी शास्त्रीय संगीत को संजो कर रखने वाले इस गांव के युवाओं का मन शास्त्रीय संगीत से उचटने लगा है।


शास्त्रीय संगीत को देवता मानने वाले पं। मोहन मिश्र कभी तबले की संगत में बड़े-बड़ों को मात दिया करते थे लेकिन आज उन्हें एक परचून की दुकान से अपने घर का खर्च चलाना पड़ता है। बड़े अफसोस के साथ पं. मिश्र कहते हैं कि साल में एक दो कार्यक्रम मिलने से घर का खर्च नहीं चल पाता है, इसलिए अब हमें विकल्प भी तलाशना पड़ रहा है।


शास्त्रीय संगीत हरिहर पुर गांव की आबोहवा में है। इसलिए यहां का बच्चा-बच्चा आज भी इस साधना के लिए जी जान से जुटा हुआ है। शास्त्रीय संगीत को जिन्दा रखने का जज्बा यहां के बच्चों में इस कदर है कि गांव के सभी बच्चे सुबह चार बजे से रियाज करना शुरू कर देते हैं और रियाज का यह सिलसिला शाम ढलने तक चलता है। इसी का नतीजा है कि तोतली जुबान में बोलने वाला पांच साल का बबलू मिश्रा जब तबले पर थाप देता है तो शास्त्रीय संगीत के बड़े-बड़े पंडित भी दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं।


पं। बड़ी लाल मिश्रा जिनकी तीन पीढ़ी संगीत की साधना में गुजर चुकी हैं अपने 6 साल के पोते के सारंगी वादन के हूनर पर इतराते तो हैं लेकिन उसके शास्त्रीय को कैरियर बनने के फैसले से घबरा जाते हैं। शास्त्रीय संगीत के पुजारी इस गांव के लोग कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुकें हैं लेकिन आज यहां के कलाकारों का हाल लेने वाला कोई नहीं है।


शास्त्रीय संगीत की उपेक्षा ने इनके सामने रोजी रोटी का संकट तो खड़ा किया ही है साथ ही अब इन्हें शास्त्रीय संगीत के भविष्य को लेकर भय भी सताने लगा है।यदि स्वर को ब्रह्म माना जाय और शास्त्रीय संगीत को देवता तो निश्चित हैं कि हरिहरपुर गांव उसका मन्दिर है और यहां के लोग उसके पुजारी। लेकिन अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि भक्त और भगवान दोनों ही आज संकट के दौर से गुजर रहे हैं। यदि शीघ्र इनके ऊपर ध्यान नहीं दिया गया तो शास्त्रीय संगीत को संजोकर रखने वालों की हिम्मत कभी भी जवाब दे सकती है।