तरूण कुमार 'तरूण' एक बार फिर अनुभव में हाजिर हैं। वादे के मुताबिक वे अब अपनी कविताऐं यहां देते रहेंगे। आज उनकी दो अलग-अलग मुड की कविता हाजिर है।
तो , पढ़ें, और अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें अवगत कराऐं।
हिन्दू-मुस्लिम दंगा
गलतफहमी में दोनों कौमें गिरगिट से ले बैठी पंगा
हिन्दू ने समझा गिरगिट मुसलमां
मुस्लिम ने समझा गिरगिट काफिर
इस खबर से नेताओं का माथा गया फिर
तुरंत जेड श्रेणी का प्रोटेक्शन गिरगिट को मिला
सारा फोर्स प्रोटेक्शन में पिला
सुबह खबर आयी-
नेता गिरगिट भाई-भाई
आखिर रंग बदलने वाले इन जीवों की एक हीं तो है माई........
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रोज जुतम-जूती, लत्तम-लत्ती से
जनता की नींद हुई हराम
प्रतिक्रिया स्वरुप उन्होंने,
संसद भवन को घेर लिया सरेआम.
एक विचित्र मांग-
उच्च सदन, निम्न सदन और स्वयं नेता सदन,
सार्वजनिक जगहों से हों दूर
सबसे उपयुक्त स्थल होगा-
कुरूक्षेत्र, पानीपत, प्लासी और हस्तिनापुर
आपकी लड़ाई और सिर-फुटौव्वल से,
भीम, अर्जुन,अब्दाली और अंग्रेजों की शान रहेगी,
जनता शांति से वोट दोने के लिए
दो-चार साल ज्यादा जिएगी...................
मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
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Sunday, August 19, 2007
Tuesday, August 14, 2007
खादी ओ श्वेत खादी
तरूण कुमार 'तरूण' आईएनएस के हिन्दी सेवा के प्रमुख हैं, इसलिए मेरे आका भी हुए। खैर, जनाब अपने कार्यों के अलावे साहित्य में रुचि रखते हैं। एक दिन यूं हीं अपना काम खत्म करने के बाद मैं ब्लाग पे हाथ चला रहा था, तो तरूण सर ने भी इसमे अपनी रुचि दिखायी। फिर क्या था, हम दोनों ब्लाग विषय पर बतियाने लगे। मैंने उन्हें अनुभव में कलम चलाने की गुजारिश की, सर तैयार हो गये। आज उन्होने अनुभव को एक कविता दी है।
कविता में काफी बातें छुपी है....तो खुलकर भी बातें जमकर कही गयी है.
आज आप इसे पढ़े, और हां प्रतिक्रिया भी अवश्य दें। इंतजार रहेगा।
गिरीन्द्र
खादी ओ श्वेत खादी
कितने अश्वेत, कितने धब्बेदार हो गए तुम
बापू की दी हुई पहचान
गिरगिट काया पर हो गई गुम
रक्त के अहम भरे कोटि धब्बे
उत्कोच, घोटाले का अनवरत पान
ओह खादी आज भी तुम पर न्योछावर है ये असंख्य जान
बदला है सिर्फ स्वरूप
शायद अब धागा ही हो गया है कुरूप,
पहले तुम्हारी अपील पर
निकलते थे,
सुभाष, धींगरा और वीर भगत
आज अपील नहीं, तुम्हारे इशारे पर
निकलते हैं कितने बगुलाभगत.................
कविता में काफी बातें छुपी है....तो खुलकर भी बातें जमकर कही गयी है.
आज आप इसे पढ़े, और हां प्रतिक्रिया भी अवश्य दें। इंतजार रहेगा।
गिरीन्द्र
खादी ओ श्वेत खादी
कितने अश्वेत, कितने धब्बेदार हो गए तुम
बापू की दी हुई पहचान
गिरगिट काया पर हो गई गुम
रक्त के अहम भरे कोटि धब्बे
उत्कोच, घोटाले का अनवरत पान
ओह खादी आज भी तुम पर न्योछावर है ये असंख्य जान
बदला है सिर्फ स्वरूप
शायद अब धागा ही हो गया है कुरूप,
पहले तुम्हारी अपील पर
निकलते थे,
सुभाष, धींगरा और वीर भगत
आज अपील नहीं, तुम्हारे इशारे पर
निकलते हैं कितने बगुलाभगत.................
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