Monday, September 10, 2018

गाम की रात

रात की बात है। कल से बारिश हो रही है, कभी तेज़ तो कभी रुक-रुक कर। दूर कहीं लाउड स्पीकर बज रहा है, गाम - घर का बाजा।

शाम आठ बजे बिजली चली जाती है, फिर लालटेन की रोशनी अंधेरे से लड़ती है। बाहर का अँधेरा भीतर में कभी-कभी प्रकाश फैला देता है।

मोबाईल का स्क्रीन लिखते रहने की बात करता है और कुर्सी पर बैठकर टाइप करने लगता हूं। दिन में भारत बंद था, गाम घर बंद से दूर खेत में लगा था। डीज़ल की महँगाई खेती प्रभावित करती है लेकिन रुकता कुछ नहीं है, जीवन यही है। बाद-बांकी राजनीति चलती ही रहती है। पक्ष-विपक्ष शतरंज खेलता है और हम सब अपनी बाजी के इंतज़ार में बैठे रह जाते हैं। जीतने वाला जानता है कि हम शानदार मोहरे हैं।

उधर, दूर कहीं ढोल बज रहा है। घर से दो किलोमीटर पूरब एक पक्की सड़क है, जहाँ से गाड़ी की आवाजाही की आवाज कभी-कभी सुनाई देती है लेकिन मेढक की टर्र-टर्र सब पर हावी है, संगीत माफ़िक़ यह सब लगता है।

भीड़-भाड़ से दूर गाँव की रात अंधेरे से लड़ते रहने की सीख देती है। बारिश के मौसम में बादल जब भी गरजता है तो लगता है कोई शास्त्रीय गायक अलाप ले रहा है, खिड़की से बाहर का अँधेरा तिलिस्मी लगता है।

लाउड स्पीकर बंद हो चला है। घर -दुआर पर सन्नाटा पसर गया है। बीच बीच में कुत्ते की भोंकने की आवाज़ चुप्पी तोड़ती है। शहर की शाम गाम आते-आते रात हो जाती है।

इस बीच बारिश की वजह से गाछ-वृक्ष की हरियाली देखते बनती है। अंधेरे में भी हरियाली दिख जाती है। हवा में ठंडक है, जीवन यही है। अहमद नदीम क़ासमी की लिखी यह पाती याद आ रही है-

“रात भारी सही कटेगी ज़रूर,
दिन कड़ा था मगर गुज़र के रहा “

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