Thursday, August 02, 2018

माटी के कवि -गीतकार राजशेखर

हमारी माटी के कवि -गीतकार हैं राजशेखर. कल जब दिल्ली में मेरे रंगरेज को सम्मानित किया जा रहा था तो हमारे अंचल में अनवरत बारिश हो रही थी। खेत में धान के नवातुर पौधे खिलखिला रहे थे। खेत और मन दोनों तृप्त हो रहा था। 

ऐसे में राजशेखर भाय को दिल्ली में मिला ‘काव्य सम्मान’ धान की खेत तरह हरियर लगने लगा। हम उनके गाम गए हैं। उनके दुआर पर ठहरे हैं। मधेपुरा का सुदूर गाँव है भेलवा। 

शब्दों के ज़रिए राज भाय मेरे जीवन में आए और फिर कब जीवन का हिस्सा बन गए, उसका कोई हिसाब-किताब नहीं है।

 दुआर पर हरी दूब स्मृति की चादर माफ़िक़ थी। आँगन में चूल्हा मन के भीतर की माटी को और भी मज़बूत करने का काम किया। राजशेखर का लिखा उन्हीं के आँगन में मन में बजने लगा-

“फिर आजा तू ज़मीं पे,
और जा न कहीं,
तू साथ रह जा मेरे,
कितने दफे दिल ने कहा,
दिल की सुनी कितने दफे....”

प्रकृति से बेहद क़रीब इस शख़्स में कभी कभी मैं कबीर का हद-अनहद खोजने लगता हूं..ख़ैर, अभी नियमगिरि पर्वत के लिए लिखी गयी इनकी एक मशहूर कविता ‘नियमराजा’ से कुछ अंश पढ़िए-

“हो देव! हो देव!
बस एक बात रहे,
नियमगिरि साथ रहे,
जंगल के माथे पे
उसके दोनों हाथ रहे|

टेसू-पलाश फूले,
लाले-लाले लहर-लहर,

मांदल पर थाप पड़े,
धिनिक-धिनिक, थपड-थपड|
दिमसा का नाच चले,

तनिक-तनिक संवर-संवर,
गाँव-गाँव-गाँव रहे,
दूर रहे शहर-शहर|

वर्दी वाले भाई,
तुम आना इधर,
ठहर-ठहर-ठहर-ठहर|

माटी के कुइया-मुइया
जंगल के हइया-हुइया

कुइया-मुइया, हइया-हुइया
कुइया-मुइया हम|”

1 comment:

चेतन कश्यप said...

एक अच्छी खबर । एक अच्छे आदमी के बावत ।

वर्दी वाले भाई
तुम आना इधर
ठहर ठहर ठहर ठहर

अनायास याद दिलाता है
चलता फिरता जान के एक दिन
बिन देखे पहचान के एक दिन
बांध के ले गया पुलिस वाला....

पुरुस्कारों से भी ज्यादा इनको वक्त सम्मान देगा । और पब्लिक प्यार ।