Sunday, April 19, 2015

रैली के बहाने रविवार को 'किसानी - बात'

राहुल गांधी जैसे राजनीति करने वाले लोग जब किसानों की बात करते हैं न तो मुझे दिल्ली-कानपुर में बिताए अपने सुनहरे दिनों की याद ताजा हो जाती है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर हम किसान, समाज, गांव-घर आदि की बातें करते थे और आह! ग्राम्य जीवन जैसे जुमलों का लेखनी और बोली में प्रयोग करते थे। 

अंचल की सांस्कृतिक स्मृति की बदौलत देहात की बातें करते थे। खेती कर रहे लोगों की बातें करते थे। ये सब बस बातें थीं और असल जिंदगी में जब किसानी और किसान के बीच पहुंचे और किसानी पेशा को अपनाया तो जान गया कि महानगरों में अब तक जो हम खेती आदि की बातें कर रहे थे वो असल में बकैती थी और कुछ भी नहीं।

राहुल गांधी ने जब किसान रैली की बातें की, किसानों से मुलाकात की और मुलाकात करने वाले किसानों की जब तस्वीरें सोशल मीडिया के जरिए मेरे जैसे किसान तक पहुंची तो मैं मन ही मन मुस्कुराने लगा। गुलाबी पगड़ी में किसानों को देखकर मुझे बॉलीवुड फिल्मों की याद गई। सच कहिए तो किसान शब्द अब मुझे सबसे अधिक बिकाऊ लगने लगा है। जिसे देखिये वो ही किसान और किसानी पर कथा बांचने लगा है । लेकिन क्या कोई किसानों के लिए सच में कुछ कर रहा है? ये सबसे बड़ा सवाल है।

जान लीजिये किसानी कर रहे लोग अन्नदाता हैं, हर चीज के बदले एक चीज होती है लेकिन अन्न के बदले कुछ भी नहीं है। यदि आपको भूख लगेगी तो अन्न ही चाहिए, कपड़ा, मकान, हथियार, गाड़ी –घोड़ा आपकी भूख नहीं मिटा सकती है।
किसानों की रैली चाहे जो दल आयोजित करे उसमें किसानों की उपस्थिति पर भी गौर करना होगा।

किसानों की रैली में दिल्ली आसपास से आए किसानों के बारे में सोचने की जरुरत है। रैली में जो किसान लाए गए होंगे क्या उनके खेतों के बारे में कभी आपने सोचा है? वे सब खेत के लिए जीते हैं राहुल बाबा! अभी उन्हें खेतों में होना चाहिए। फसल कटाई और सिंचाई का वक्त है और राजनीति की खेती कर रहे आप जैसे लोगबाग उन्हें अपनी खेती में फंसाने में लग जाते हैं। यह जायज नहीं है।

दिल्ली की पंचसितारा राजनीति करते हुए किसानों की बात करने वाले लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि किसानों की इस बार कमर टूट गई है, जिन किसानों ने अगेती गेहूं बोया था, उन्हें नुकसान ज्यादा हुआ है। उनकी पचास फीसदी से भी अधिक फसल बर्बाद हो गई है। हम जानते हैं कि सरकार को सांसद और विधायक चलाते हैं, लेकिन वे सब अन्न खाते हैं। अन्न दाताओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए सांसदों व विधायकों को।

आप सब किसानों के नाम पर सिर्फ राजनीति कर रहे हैं। इंटरनेट के जाल पर आवाजाही करते हुए पता चलता है कि कई नेता अपना पेशा खेती लिखते हैं, लेकिन वह खेत पर जाकर कभी नहीं देखते। चौधरी चरण सिंह किसानों के नेता थे। लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा देकर किसानों का सम्मान बढ़ाया, किंतु अब नेताओं के दिलों में किसानों का दर्द नहीं है। 

किसानों के नाम पर सिर्फ सियासी रोटियां सेकते हैं। किसान यूनियन के नाम पर भी कुछ ऐसा ही किया जा रहा है, इसमें ऐसे लोग शामिल हैं, जो खुद भी खेती नहीं करते, कई के पास तो जमीन हीं नहीं है। दबाव बनाकर अपने उल्टे सीधे काम निकालते हैं। उन्होंने इसे अपना धंधा बना लिया है। सरकार किसानों की सहायता समय से नहीं कर पाती। किसानों तक सरकारी सहायता पहुंचते पहुंचते एक अर्सा गुजर जाता है। बाद में भी जो मुआवजा बंटता है, उसमें ज्यादातर हिस्सा कर्मचारी खा जाते हैं। 

ऐसे में किसानों को लेकर मुल्क की राजधानी और राज्यों की राजधानियों में आने वाले दिनों में खूब सम्मेलन होंगे लेकिन किसानों की बात उसमें क्या होगी ये हम सब जानते हैं। मेरे जैसा किसान जो सोशल मीडिया पर सक्रिय है और अपनी बात लिखता रहता है वह यह भी जानता है कि किसान सबसे साफ्ट टारगेट होता है लेकिन यह सब जानते हुए भी मैं अपना भरम तोड़ना नहीं चाहता और इच्छा यही है कि किसानी के प्रति मेरा मोह बना रहे। साल में कभी कभी जब फसल कमजोर होती थी तब बाबूजी के मुंह से मैं एक कहावत सुनता था- "मरैक सोचि क' खेती नँइ करी आ जीवी त' खाई की?  मतलब मौत के बारे में सोचकर खेती न करुं और जिंदा रहूं तो फिर भोजन क्या करूं...। किसानी कर रहे लोगों की असली तस्वीर यही कहावत बयां करती है लेकिन इस कहावत को नेताजी सब कैसे समझेंगे यही सबसे बड़ा सवाल है।

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