कई बरस बीत गए नहर में पानी देखे, जोगो कका बोल रहे थे। जोगो कका मतलब योगानंद काका। हम बचपन से ही उन्हें जोगो कका कहते आएं हैं। गांव की खेती-बाड़ी का हिसाब-किताब अब वही रखते हैं। कोसी प्रोजेक्ट और बाद में कोसी के इलाकों में नहरों को बनते उन्हें देखा है। मेरे गांव में एक समय खेतों को नहरों के पानी से सिंचा जाता था, लेकिन प्रदेश की राजनीति की तरह ही नहरों की भी राजनीति शुरू हुई और नहर पानी बिन सुन रहने लगी, कोसी मैया का प्रवाह हमारे यहां थम गया।
रात में ऑफिस से निकलने के बाद जोगो कका से भाया-मोबाइल बात हो रही थी तो पूछा कि प्रदेश में सरकार तो सुशासन का दावा कर रही है, तो क्या नहर में भी सुशासन आ गया है..? कका हंसते बोले,
धत्त, उ तो पोलिटकल नाच-गाना है बाबू...आप का चाहते हैं डीजल की बिक्री गांव में नहीं हो? अरे उ ससुरा का करेगा, वोट बैंक अपन गांव में उसकी पार्टी का नहीं है, तो काहे नहर में पानी छोडे़गा.. इ कबहूं सोचे आप? अरे दिल्ली से कोसों दूर अपन गांव आईए, जदि राजनीति समझना है। (कका ‘य’ को ‘ज’ ही बोलते हैं। इसलिए हम उन्हें जोको काका कहते हैं।)
मैं अंचभित था, कका की बोली पर। विधायक और सांसद की तो ...काफी कुछ करने पर उतारू थे। दरअसल नहर में पानी नहीं रहने पर पंपींग सेट से खेत को पटाना पड़ता है (खेत को पटाना मतलब सिंचाई ॥समझें हमारे यहां यही कहते हैं।)और इसके लिए डीजल चाहिए, जिसके लिए किसान के पास नकद की आवश्यकता होती है। और अब आप पूछिएगा बिजली नहीं है क्या..। तो सुनिए जोगो कका का कहते हैं- बिजली आती है ..किरासन का कुछ बचत हो जाता है, जब सुतने (सोने) जाते हैं तो आती है।
अब तो आप बिजली की कथा समझ गए ही होंगे, लेकिन कका निराश नहीं हैं, उन्हें विश्वास है कि एक दिन गांव की तकदीर बदलेगी। मेरे लिए वे पुरानी किताबों की तरह हैं। रेणु की परती कथा की तरह।
खैर, कका बताते हैं कि कैसे पहले नहर में पानी लबालब रहा करता था, उस समय बाबूजी गांव में रहा करते थे। शहर के आउटहाउस में डेरा नहीं डाले थे।(खेती से मोहभंग नहीं हुआ था।) भैंसे भी उसी में नहाती थी। कका कहते हैं कि बाबूजी विधायक और सांसद दोनों की पसंद थे। दरअसल उनके पास लगभग 5-6 हजार वोट था, तो भला कौन नेता गांव को नहीं देखे।
बीमारी और व्यवहार में बदलाव के कारण वे राजनीति और गांव से दूरी बनाने लगे। कका कहते हैं कि बड़का मालिक (बाबूजी) के गांव से दूरी बनाने से नेता भी दूरी बनाने लगे। दरअसल, वोट अब बंटने लगा, किसी खास पार्टी की झोली में वोट नहीं जाकर इधर-उधर बिदकने लगा। मैं जहां इसे जिंदा लोकतंत्र मानता हूं वहीं कका इसे राजनीति का अपराधीकरण कहते हैं। (समाजविज्ञानी और राजनीतिक विश्लेषक जो समझें, उनपर छोड़ देत हैं।)
कका कहते हैं कि वोट के इधर-उधर बिदकने से कई लोग वोट की दुकानदारी करने लगे। उन्हीं की जुबानी में ससुरा जिसको देखो वहीं हाथ, कमल, झोपड़ी, लालटेन, तीर ..का झंडा लिए किराना दुकान खोल लिया है। अरे इ कोनो बात है, किसी एक को वोट दो...काहे वोट कटुआ बनते हो जी..जरा हमरो समझाओ.......?
कका फोन पर गरम हो रहे थे, हमने कहा ठीक तो है, जिसे जिस उम्मीदवार पर विश्वास है, उसी को वोट देगा। कका बिदक गए इ सुनकर बोले- किस पर विश्वास करूं, सबको अजमा लिए, सब बराबर। अरे बदलना है तो नेतवन को लाठी लेकर पीटो, अक्ल ठिकाने पर आ जाएगा। कका के मुख से दनादन गालियां निकल रही थी, मानो कहीं एनकाउंटर हो रहा हो।
मैंने बात संभालने की कोशिश की, पूछा कका तो गांव में क्या कुछ पंसद भी है आपको..? कका नरम हुए। बोले रोडवा बन रहा है, चकाचक होने वाला है- प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना वाला। ये बोलते हुए बेहद खुश थे कका ।
(मन ने कहा, कका चुनाव नजदीक है,,पर उनको ज्यादा उखाड़ने का मन नहीं कर रहा था, हम दिल्ली में थे. उ तो काकी या छोटकी दीदी पर हमारी भड़ांस निकाल देते ..सो उन्हीं के गप्प को सुनने में हमारी और काकी की भलाई थी।)
सोचा चलिए, घुप्प अंधेरे में भी उन्हें कहीं रोशनी तो दिख रही है। मेरे कैब का ड्राइवर रजनीगंधा चौक से (नोएडा) डीएनडी फ्लाइवे की ओर मुड़ चुका था, रात काफी हो चुकी थी....टोल पर 20 रुपये टैक्स देने के बाद 100 किमी. की गति से गड्ड़ी को भाया चकाचक रोड रिंग रोड़ की तरफ रपटने लगा, ।
शायद कका भी ऐसी ही सड़क की कल्पना कर रहे... हों.........................पता नहीं..। गड्डी में एफएम पर गाना चालू था-
“कोयल कूके हूक उठाए....
यादों की बंदूक चलाए..
बागों में झूलों के मौसम वापस आए...रे
घर आ जा परदेशी ....तेरा देश बुलाए रे.....
इस गांव की अनपढ़ मिट्टी...
पढ़ नहीं सकती तेरी चिट्ठी
ये मिट्टी तू आकर चूमे
तो इस धरती का दिल चूमे....
माना तेरे हैं कुछ सपने
पर हम तो हैं तेरे अपने
भूलने वाले हमको
तेरी याद सताए..
घर आ जा परदेशी..........
तेरा देश बुलाए................रे...”
(जारी है...)
1 comment:
गड्डी में एफएम पर गाना चालू था-
“कोयल कूके हूक उठाए....
यादों की बंदूक चलाए..
बागों में झूलों के मौसम वापस आए...रे
घर आ जा परदेशी ....तेरा देश बुलाए रे.....
इस गांव की अनपढ़ मिट्टी...
पढ़ नहीं सकती तेरी चिट्ठी
ये मिट्टी तू आकर चूमे
तो इस धरती का दिल चूमे....
माना तेरे हैं कुछ सपने
पर हम तो हैं तेरे अपने
भूलने वाले हमको
तेरी याद सताए..
घर आ जा परदेशी..........
तेरा देश बुलाए................रे...”
mast raha, agli post jaldi se.
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