Tuesday, October 30, 2018

स्मृति में गेंदा फूल

फेसबुक कमाल की चीज है। यहां अक्सर स्मृतियां यात्रा करती दिख जाती है। कुछ दिन पहले की बात है, सत्यानंद निरुपम भाईजी के टाइमलाइन में सदाबहार गेंदा का पौधा दिख गया। लाल, पीले रंग का छोटा सा फूल। इसे शिव गेंदा भी कहा जाता है।

गेंदा के हाइब्रिड प्रजातियों से परे यह फूल मुझे सबसे अधिक पसंद है। इसे देखते ही बचपन कुलांचे मारने लगता है। इसकी खुशबू मुझे खींच लेती है।

निरुपम भाईजी का टाइमलाइन उस दिन मुझे सबसे अधिक आत्मीय लग रहा था। मुझे बाबूजी की पूजा की थाली याद आने लगी। रक्त चंदन से लिपटा सदाबहार गेंदा उनकी पूजा पद्दति का हिस्सा था। पूजा के बाद फूल जब उठाकर देवी की तस्वीर के पास रखा जाता तो हम चुपके से उसे उठा कर रख लेते और फिर उसकी पंखुड़ियों से रंग निचोड़ते।

इस गेंदा ने मानस पर जो गहरी छाप छोड़ी है, उसके पीछे एक व्यक्ति है, जिसे में आजतक खोज रहा हूं। हमारे गाँव में सफेद कपड़े में एक व्यक्ति हर बुधवार को आता था। उसके पास सफेद कपड़े का ही एक झोला होता था। उम्र करीब 25-30 साल होता होगा उनका।

दोपहर के वक्त बाबूजी की बैठकी में वे बैठते थे और सूरदास के पद सुनाते। उनके कपड़े वाले झोले से सुंगध आती रहती थी। हमने पहली बार सूरदास के शब्द उन्हीं के मुख से सुना। वे अक्सर सुनाते- " नंद दुवारे एक जोगी आयो शिंगी नाद बजायो। सीश जटा शशि वदन सोहाये अरुण नयन छबि छायो."

जब वे ये सब सुनाते थे तो उनकी छवि मुझे और आकर्षित करती थी। लेकिन हमारा ध्यान उनके झोले पर टिका रहता था। एक -आध घण्टे रहने के बाद वे जब जाने की तैयारी करते तो जाते वक्त झोले से एक मुट्ठी फूल टेबल पर रख जाते। सब फूल सदाबहार गेंदा का होता था! उसकी खुशबू में हम खो जाते थे।

बरसों बाद जब गाम-घर लौटा तो हम उन्हें खोजने लगे लेकिन उनका कुछ पता नहीं लगा। बाबूजी उन्हें माली भाई कहते थे। बाबूजी साल में उन्हें एक बार धान की बोरी देते थे।

सूरदास का भजन और उनकी झोली से निकला सदाबहार गेंदा का फूल, दोनों ही अपने मानस में घर बनाये हुए है। बचपन की स्मृति में यह फूल और सूरदास की यह रचना एक छाप की तरह है जो शायद ही कभी मिटे-
" मो सम कौन कुटिल खल कामी।
  जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ      नमकहरामी॥
पापी कौन बड़ो है मोसे, सब पतितन में नामी।
''सूर'' पतित कों ठौर कहां है, सुनिए श्रीपति स्वामी॥"


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