Sunday, September 25, 2016

पितृपक्ष, बारिश और बाबूजी

गाम में आज सुबह से बारिश ही बारिश। झमाझम बरखा में खेतों के बीच जाना हुआ। जहाँ पानी अधिक, वहाँ छै-छप-छै करती मछलियाँ :)

उधर, तेज़ हवा और बारिश की वजह से धान को नुक़सान हुआ है। इस बार बारिश का अन्दाज़ ख़तरनाक है। गाम घर के डाक वचनों के मुताबिक़ दशहरा के अंत तक बारिश का मौसम बना रहेगा। ऐसे  में  आलू की बुआई भी प्रभावित होगी।

गाम में आज दिन भर यह सब सुनते हुए बाबूजी बहुत याद आए। वे मौसम के गणित को डाक वचन के आधार पर हल किया करते थे और इसी आधार पर खेती भी करते थे। देखिए न इन दिनों पितृपक्ष भी चल रहा है। शास्त्रों के अनुसार इस दौरान हम अपने पितरों को याद करते हैं, उन्हें तर्पण अर्पित करते हैं।

बाबूजी हर दिन तर्पण करते थे, वे पुरखों को याद करते थे। शास्त्रीय - धार्मिक पद्धति के अलावा वे एक काम और किया करते थे, वह था अपने पूर्वजों के बारे में बच्चों को जानकारी देना। दादाजी की बातें वे बड़े नाटकीय अन्दाज़ में सुनाते थे। उसमें वे शिक्षा, व्यवहार के संग खेती- बाड़ी को जोड़ते थे।

पितृपक्ष की परंपरा को समझने- बूझने के दौरान आज बाबूजी की बहुत याद आ रही है। लगता है वे भी कहीं से बारिश में खेतों में टहल रहे हैं। हर दिन जब संघर्ष का दौर बढ़ता ही जा रहा है और सच पूछिए तो चुनौतियों से निपटने का साहस भी बढ़ता ही जा रहा है, ऐसे में लगता है कि बाबूजी ही मुझे साहस दे रहे हैं। अक्सर शाम में पूरब के खेत में घूमते हुए लगता है कि वे सफेद धोती और बाँह वाली कोठारी की गंजी में मेरे संग हैं।

धान की बालियाँ जब पानी में झुक गई है, तो मैं परेशान हो जाता हूं कि तभी लगता है वे कंधे पे हाथ रखकर कह रहे हों कि सब ठीक हो जाएगा। ऐसा हर वक़्त लगता है कि वे कुछ बताकर फिर निकल जाते हैं। दुःख बस इस बात का होता है कि  वे बताते भी नहीं हैं कि कहाँ निकल रहे हैं।

लोग पितृपक्ष में परंपराओं के आधार पर बहुत कुछ करते हैं, मैं कोई अपवाद नहीं। लेकिन मैं उन चीज़ों से मोहब्बत करने लगा हूं, जिसे बाबूजी पसंद किया करते थे। खेत, पेड़-पौधे, ढ़ेर सारी किताबें और उनकी काले रंग की राजदूत।

बाबूजी की पसंदीदा काले रंग की राजदूत को साफ़ कर रख दिया है, साइड स्टेण्ड में नहीं बल्कि मैन स्टेण्ड में। वे साइड स्टेण्ड में बाइक को देखकर टोक दिया करते थे और कहते थे : " हमेशा सीधा खड़े रहने की आदत सीखो, झुक जाओगे तो झुकते ही रहोगे..."

सच कहूं तो अब अपने भीतर, आस पास सबसे अधिक बाबूजी को महसूस करता हूं। पितृपक्ष में लोगबाग कुश-तिल और जल के साथ अपने पितरों को याद करते हैं। लेकिन मैं अपनी स्मृति से भी अपने पूर्वजों को याद करता हूं क्योंकि स्मृति की दूब हमेशा हरी होती है और इस मौसम में सुबह सुबह जब दूब पर ओस की बूँदें टिकी रहती है तो लगता है मानो दूब के सिर पे किसी ने मोती को सज़ा दिया है।

आज बाबूजी से जुड़ा सबकुछ याद आ रहा रहा है।दवा, बिछावन, व्हील चेयर, किताबों वाला आलमीरा...सबकुछ आँखों के सामने है लेकिन बाबूजी नहीं हैं।

इस बीच अखबारों, पत्रिकाओं और वेब पोर्टल पर कितना कुछ छ्प रहा है लेकिन मैं किसे बताऊं? लिखते रहने का सम्मान मिला लेकिन उन्हें कुछ भी दिखा न सका। मैं पितृपक्ष में हर दिन सबकुछ उन्हें अर्पित करता हूं। वे मेरे लिए एक जज्बाती इंसान थे लेकिन यह भी सच है कि वे ऊपर से एक ठेठ-पिता थे। 



1 comment:

रेणु said...

गिरीन्द्र जी आप का ब्लॉग बहुत दिनों से पढ़ रही हूँ | बाबूजी एक ऐसा शब्द है जो हर एक के दिल को छूकर निकलता है आपने बहुत अच्छा लिखा आप सचमुच जमीन से जुड़े इन्सान हैं |इस्वर आप का ये गुण बनाये रखे |मेरे मेल का जवाब जरूर दे , ताकि मैं जन सकूँ ये आप तक पहुँच गया है | रेणु