Saturday, May 07, 2016

हमें हर साल लड़ना पड़ता है...

चनका से लौटकर पूर्णिया डेरा आ चुका हूं। सुबह से लेकर शाम तक लूट चुके खेतों को देखता रहा बस! आँखों के सामने प्रकृति की विनाश लीला देखता रहा, तेज़ हवा के प्रचंड रूप को देखकर डर गया।

कदंब के किशोर पेड़, मोहगनी और एमशोल जैसे लम्बे सुंदर पेड़, जिनकी उम्र छह से आठ साल होगी, सब टुकड़े टुकड़े हो गए।  प्रकृति की मार सबसे ख़तरनाक होती है, किसानी करते हुए यह जान सका। हर साल हमलोग लड़ते हैं, कई लोगों ने  सलाह दी, खेतों में कुछ अलग हो लेकिन जब आँधी आती है न, तब नया करने से डरने लगता हूं।

सुबह चनका पहुँचते ही मौसम की मार खेतों में आँखों के सामने देखने लगा। आम से लदे पेड़ की डालियाँ ज़मीन पर लेटने लगी। सैकड़ों आम जिन्हें पकना था एक महीने बाद, सब टूट कर बिखर गये। लीची बाड़ी में जाने के बाद मन और खट्टा हो गया। कटहल की तो पूछिए मत, पेड़ ही गिर पड़े।

मक्का की वह फ़सल जिसे हमने देर से बोया था, वह तो रूठ गया मुझसे। अभी तो मक्का के दाने  में दूध ही आया था। किसान का दर्द मुआवज़े के गणित से दूर है और हाँ, मैं निजी तौर पर इससे दूर रहना भी चाहता हूं।

बाँस बाड़ी की क्षति शब्द में बयां नहीं कर सकता। जानते है क्यों? दरअसल यह महीना बाँस में नए कोपल आने का है, बाँस का परिवार इसी महीने बढ़ता है और प्रकृति की लीला देखिए, आधे घंटे में बाँस बाड़ी की झुरमुट ज़मीन पर। हमारा नक़दी फ़सल ख़त्म!

यही आजकी कहानी थी। कुछ तस्वीरें हैं। काले मेघ की तस्वीरें हैं, जिसे देखकर मन को ठंडक पहुँचेगी यदि आप गरमी झेल रहे होंगे लेकिन इसी तस्वीर के बाद ही तूफ़ान को हमने झेला।

यक़ीन मानिए हम हारेंगे नहीं, जिनसे हमने अपने खेतों में कुछ नया करने का वादा किया है, ज़रूर करूँगा। हम रिस्क उठाएँगे, हार नहीं मानेंगे, बस किसानों पर आपलोग भरोसा बनाए रखिए, किसानी समाज जो हर साल आपके लिए अन्न उपजाता है, उसे स्नेह दीजिए। सरकार तो है ही , देर सवेर वह सुन ही लेती है। आप सब भी गाँव को देखिए आपदा के समय में। हमसब माँगते नहीं हैं, बस चाहते हैं कि दुख-सुख में दूसरे पेशे के लोग भी खेतों तक पहुँचे। खेत किसी एक का नहीं होता, यह सबका होता है।

किसानी करते हुए, लिखते पढ़ते हुए पिछले तीन साल से यही सब भोग रहा हूं, हँसते हुए खेत-पथार को समझ रहा हूं। महाराष्ट्र में पानी संकट से जूझ रहे किसानों की सुनता हूं तो मन टूट जाता है लेकिन उनके लिए भी यह परीक्षा की घड़ी है, उन्हें भी नहीं हारना है, और हमें भी नहीं। मराठवाड़ा के किसानी समाज का  दर्द महसूस कर सकता हूं, लेकिन उन्हें भी हारना नहीं है क्योंकि 'सब दिन होत न एक समाना' हमारे दिन भी हँसी ख़ुशी के आएँगे, ख़ुद पर, माटी पर और पानी पर भरोसा रखिए।

हर बुरे वक़्त से कुछ नया सीखता हूं, आज सुबह की आपदा से भी बहुत कुछ सीखने को मिला। और क्या कहूँ-'सबहि नचावत राम गोसाईं'

आपका

किसान

1 comment:

sameer said...

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