Friday, December 18, 2015

यह साल भी जाने वाला है !

किसानी करते हुए, साल के जिस माह से मुझे सबसे अधिक लगाव होता है, वह दिसंबर ही है. दिसम्बर में आलू और मक्का के खेतों से गुजरते हुए कोमल धूप तन और मन दोनों को मोह लेती है।

धूप और छाँव के संग जिंदगी की कहानी चलती रहती है । यही सत्य है । देखिये न इस साल हमने कितने मोड़ देखे जीवन में। लेकिन तभी यह भी अहसास होता है कि गिनती के कुछ दिनों बाद ही यह साल भी बीत कर विगत हो जाएगा- ठीक उसी तरह जैसे धरती मैया के आंचल मेँ न जाने कितनी सदियां ..कितने बरस दुबक कर छुपे बैठे हैँ।

फिर सोचता हूं तो लगता है कि हर किसी के जीवन के बनने में ऐसे ही न जाने कितने 12 महीने होंगे, इन्हीं महीने के पल-पल को जोड़कर हम-आप सब अपने जीवन को संवारते-बिगाड़ते हैं। किसानी करते हुए हमने पाया कि एक किसान हर चार महीने में एक जीवन जीता है। शायद ही किसी पेशे में जीवन को इस तरह टुकड़ों में जिया जाता होगा।

चार महीने में हम एक फसल उपजा लेते हैं और इन्हीं चार महीने के सुख-दुख को फसल काटते ही मानो भूल जाते हैं। हमने कभी बाबूजी के मुख से सुना था कि किसान ही केवल ऐसा जीव है जो स्वार्थ को ताक पर रखकर जीवन जीता है। इसके पीछे उनका तर्क होता था कि फसल बोने के बाद किसान इस बात कि परवाह नहीं करता है कि फल अच्छा होगा या बुरा..वह सबकुछ मौसम के हवाले कर जीवन की अगले चरण की तैयारी में जुट जाता है।


किसानी करते हुए जो अहसास हो रहा है, उसे लिखता जाता हूं। इस आशा के साथ कि किसानी को कोई परित्यक्त भाव से न देखे। अभी-अभी विभूतिभूषण बंद्योपाद्याय की कृति ‘आरण्यक’ को एक बार फिर से पूरा किया है। बंगाल के एक बड़े जमींदार की हजारो एकड़ जमीन को रैयतो में बांटने के लिए एक मैनेजर पूर्णियां जिले के एक जंगली इलाके में दाखिल होता है। जिस कथा शिल्प का विभूति बाबू ने ‘आरण्यक’ में इस्तेमाल किया है, वह अभी भी मुझे मौजू दिख रहा है। पू्र्णिया जिला की किसानी अभी भी देश के अन्य इलाकों से साफ अलग है। इस अलग शब्द की व्याख्या शब्दों में बयां करना संभव नहीं है। इसे बस भोग कर समझा जा सकता है।


खैर, 2015 के अंतिम महीने में मेरे जैसा किसान मक्का, आलू और सरसों में डूबा पड़ा है। इस आशा के साथ कि आने वाले नए साल में इन फसलों से नए जीवन को नए सलीके से सजाया जाएगा लेकिन जीवन का गणित कई बार सोचकर भी अच्छा परिणाम नहीं देता है। इस साल बाबूजी मुझसे दूर चले गए, अनन्त यात्रा पर। इस साल राजकमल से पहली किताब आई-'इश्क में माटी सोना' । लोकापर्ण से पहले छुपकर रोया, बाबूजी की याद आ रही थी। फिर सोचा , नियति को यही मंजूर होगा शायद।

किसानी करते हुए जीवन को लेकर नजरिया बदल चुका हूं। यह जान लेने का भरम पाल बैठा हूं कि पहाड़ियों के बीच बहती नदी पहाड़ी के लिए होती है, आम के पेड़ों में लगी मंजरियां आम के लिए होते हैं और गुलाब के पौधे पर उगे तीखे कांटे गुलाब के लिए होते हैं। बहुत कुछ मेरे हाथ में नहीं है, ऐसे में जहां तक सम्भव होता है सकारात्मक सोच बरकरार रखने की कोशिश करता हूँ।

यह सब लिखते हुए मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय के आवारगी का एक साल याद आता है और मुखर्जीनगर इलाके का एक रेस्तरां, जहां एक शाम एक दोस्त से मुलाकात हुई थी, जिसने बड़े दार्शनिक अंदाज में कहा था- “जानते हो, लगातार गिरती और उठती पलकें आंखों के लिए होती है न कि दुनिया देखने के लिए....’”

किसानी करते हुए इस साल तीन साल पूरा हो जाएगा, मतलब ग्रेजुएट :) ऐसे में दोस्त की बात का अर्थ समझने लगा हूँ। दरअसल समय के गुजरने के साथ-साथ और किसानी करते हुए उस दोस्त का दर्शन थोड़ा बहुत समझने लगा हूं। किसानी करते हुए ही यह अहसास हुआ है कि हम लोग जिंदगी को लेकर इतने दार्शनिक अंदाज में बातें इसलिए करते हैं क्योंकि हम यह भरम पाल बैठते हैं कि हम जो जीवन जी रहे हैं वह आसान नहीं है। जबकि सत्य कुछ और है। दरअसल जीवन को जटिल हम खुद बनाते हैं, मकड़ी का जाल हम-आप ही उलझा रहे हैं। दिनकर की वह कविता याद आने लगी है, जिसमें वे कहते हैं- “आदमी भी क्या अनोखा जीव है, उलझने अपनी ही बनाकर, आप ही फंसता और बैचेन हो न जगता न सोता है .....”

इन सबके बीच ठंड का असर बढ़ता जा रहा है। सुबह देर तक कुहासे का असर दिखने लगा है। पंखुड़ी रोज कहती है- ठंड आइसक्रीम से भी ठंडी है पापा :)

चनका से पूर्णिया लौटते वक्त हर साँझ सबकुछ मेघ-मेघ–बादल-बादल सा लगने लगा है। बाबूजी होते तो कहते 'चनका से सवेरे निकल आओ, कुहासा घेर लेगा तो दिक्कत होगी .....' लेकिन अफ़सोस वो नहीं हैं और मैं हर शाम बाबूजी हैं इस भरम को मन में लिए पूर्णिया लौट आता हूँ ताकि अगली सुबह चनका जा सकूं....

1 comment:

Chetan said...

बहुत ही भावपूर्ण रचना है। कृषि हो या लेखन, आप दोनों में जीवन भर देते हैं। आपके बाबूजी की बातें, जो आपने कहीं, आँखें नम कर देती हैं, तो पंखुड़ी का ठंड से ठंडी आइसक्रीम का ज़िक्र होंठों पर मुस्कुराहट ले आता है। यही जीवन है। पुस्तक की हार्दिक शुभकामनाएँ।
अंत में अभिन्न कमलेश के शब्दों में -
"समय एक ओढ़ लिया।
एक तह लगाकर रख लिया।"