Monday, March 31, 2014

रेणु की 'चुनावी-लीला'

फणीश्वर नाथ रेणु का बैठकखाना (औराही-हिंगना)
चुनाव के इस मौसम में साहित्यिक-चुनावी बातचीत करने का मन कर रहा है। आप सोचिएगा कहां राजनीति और कहां साहित्य। दरअसल हम इन दोनों विधाओं में सामान हस्तक्षेप रखने वाले कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की बात कर रहे हैं। रेणु ने 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा था। उनका चुनाव चिन्ह नाव था , हालांकि चुनावी वैतरणी में रेणु की चुनावी नाव डूब गयी थी लेकिन चुनाव के जरिए उन्होंने राजनीति को समझने-बूझने वालों को काफी कुछ दिया। मसलन चुनाव प्रचार का तरीका या फिर चुनावी नारे।

रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र को चुना था क्योंकि वह उनका ग्रामीण क्षेत्र भी था। आज इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधत्व उनके पुत्र पद्मपराग वेणु कर रहे हैं। रेणु ने किसी पार्टी का टिकट स्वीकार नहीं किया था। 31 जनवरी 1972 को रेणु ने पटना में प्रेस कांफ्रेस में कहा कि वे निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि पार्टी बुरी नहीं होती है लेकिन पार्टी के भीतर पार्टी बुरी चीज है। उनका मानना था कि बुद्धिजीवी आदमी को पार्टीबाजी में नहीं पड़ना चाहिए। 

रेणु का चुनावी भाषण अद्भूत था।  उन्होंने खुद लिखा है-

 " मैंने मतदाताओं से अपील की है कि वे मुझे पाव भर चावल और एक वोट दें। मैं अपने चुनावी भाषण में रामचरित मानस की चौपाइयां
,दोहों का उद्धरण दूंगा। कबीर को उद्धरित करुंगांअमीर खुसरो की भाषा में बोलूंगागालिब और मीर को गांव की बोली में प्रस्तुत करुंगा और लोगों को समझाउंगा। यों अभी कई जनसभाओं में मैंने दिनकर, शमशेर, अज्ञेय, पनंत और रघुवीर सहाय तक को उद्धृत किया है-

दूध, दूध  ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं- दिनकर
यह दीप अकेला स्नेह भरा-अज्ञेय
बात बोलेगी, मैं नहीं- शमशेर
भारत माता ग्रामवासिनी-पन्त
न टूटे सत्ता का तिलिस्म, न टूटे- रघुवीर सहाय

72 के चुनाव के जरिए रेणु अपने उपन्यासों के पात्रों को भी सामने ला रहे थे। उन्होंने कहा था-  मुझे उम्मीद है कि इस चुनाव अभियान के दौरान कहीं न कहीं मरे हुए बावनदास से भी मेरी मुलाकात हो जाएगी, अर्थात वह विचारधारा जो बावनदास पालता था, अभी भी सूखी नहीं है।

चुनाव में धन-बल के जोर पर रेणु की बातों पर ध्यान देना जरुरी है। उन्होंने कहा था- लाठी-पैसे और जाति के ताकत के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। मैं इन तीनों के बगैर चुनाव लड़कर देखना चाहता हूं। समाज और तंत्र में आई इन विकृतियों से लड़ना चाहिए।

रेणु का चुनाव चिन्ह नाव था। अपने चुनाव चिन्ह के लिए उन्होंने नारा भी खुद गढ़ा..उनका नारा था-

" कह दो गांव-गांव में
अब के इस चुनाव में/ वोट देंगे नाव मेंनाव मेनाव में।।
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव परचावल दीजै पाव भर....

कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।

मोहर दीजै नाव परचावल दीजै पाव भर....
मोहर दीजै नाव परचावल दीजै पाव भर....

राजनीति में किसानों की बात हो, मजदूरों की बात हो, ऐसा रेणु चाहते थे। राजनीति में किसानों की बात हवा-हवाई तरीके से किए जाने पर वे चिन्तित थे। वे कहते थे- धान का पेड़ होता है या पौधा -ये नहीं जानते मगर ये समस्याएं उठाएंगे किसानों की ! समस्या उठाएंगे मजदूरों की ! "

गौरतलब है कि राजनीति में रेणु की सक्रियता काफी पहले से थी। साहित्य में आने से पहले वह समजावादी पार्टी और नेपाल कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।
(मूलत: प्रभात-खबर के पॉलिटिक्स में प्रकाशित)

2 comments:

Ankur Jain said...

सुंदर प्रस्तुति।।।

Anonymous said...

रेणु जी के दर्शन, चिन्तन और संवेदना की कसौटी पर अभी के राजनीतिज्ञों को देखना शायद अब अप्रासंगिक-सा हो गया है, यह एक विडंबना है।
आपने बताया कि धन-बल के बिना वो चुनाव का अनुभव करना चाहते थे जहां नैतिक मूल्य सर्वोपरि था पर आज के नेता या राजनेता साम-दाम-दण्ड-भेद कैसे भी बस कुर्सी चाहते हैं।
आप हर मौसम में रेणुजी की याद दिलाते रहते हैं, इसके लिए विशेष तौर पर धन्यवाद झाजी.