Wednesday, March 19, 2014

'हरा' है सब, 'हारे' नहीं हैं और गर्मी की दस्तक...

आलू, सरसों उपजाने के बाद किसानी करने वाले अभी हरियाली में डूबे पड़े हैं। खेतों में मक्का लहलहा रहा है। किसानी करने वाले खुश दिख रहे हैं। लगातार मेहनत के बाद अभी कुछ दिन किसानों के लिए राहत का है।

लोगबाग का कहना है कि लगातार मेहनत से मन
हार जाता है लेकिन मक्का की हरियाली मन से हार को मिटाकर मन को हरा कर देती। होली के बाद हवा ने भी रुख बदला है, धूल ने हवा का साथ दिया और गर्मी ने इन दोनों के बीच अपने लिए जगह बनाकर दस्तक देने की कोशिश की है।

गाम घर में अभी उत्सव जैसा माहौल है। किसी न किसी के घर में भगैत या कीर्तन हो रहा है। वहीं कुतुबु्द्दीन चाचा जलसा करवा रहे हैं। धर्म की दीवार लोगों के बीच नहीं है, यह देखकर और इसे अनुभव कर अच्छा लगता है।

आम और लीची के पेड़ फलों के लिए तैयार हो रहे हैं। आम के मंजर मन के भीतर टिकोले और आम के बारे में सोचने को विवश कर रहे हैं। मन लालची हुआ जा रहा है। उन मंजरों में किड़ों ने अपना घर बना लिया है, मधुमक्खियां इधर-उधर घूम रही है।

बांस के झुरमुटों में कुछ नए मेहमान आए हैं। बांस का परिवार इसी महीने बढ़ता है। वहीं उसके बगल में बेंत का जंगल और भी हरा हो गया है। लगता है गर्मी की दस्तक ने उसे रंगीला बना दिया है। कुछ खरगोश दोपहर बाद इधर से उधर भागते फिरते मिल जाते हैं, वहीं गर्मी के कारण सांप भी अपने घरों से बाहर निकलने लगा है। जीव-जंतुओं का ग्राम्य संस्कृति में बड़ा दखल होता है, ऐसा मेरा मानना है।

ग्राम्य जीवन के 12 महीने की व्याख्या शब्दों में करना संभव नहीं है।  यहां जीवन हर पल बदलता है। अपना अनुभव कहता है कि किसान के भीतर मां होती है, जो 12 महीने फसल के रुप में बच्चों को पालती-पोसती है और फिर फसल को तैयार कर जब मंडी पहुंचाया जाता है तो बेटी की विदाई जैसा माहौल किसान के मन में तैयार हो जाता है। शायद ऐसी जिंदगी आप किसी पेशे में नहीं जीते हैं। किसानी में ही ऐसा संभव है।
दरअसल मैं किसानी को पेशा मानता हूं क्योंकि अभी भी तथाकथित विकसित समाज इसे पेशा मानने को तैयार नहीं है। कई लोग ऐसे मिले जो किसानी को मजबूरी कहते हैं।

वहीं किसानी में समय का अपना महत्व है या कहिए महामात्य है। हर कुछ समय पर होता है और मेहनत का फल भी समय पर मिल जाता है। गाम के कबीराहा मठ की ओर शाम में जब जाना होता है तो अंदर से साधो-साधो की आवाज गूंजने लगती है। मन ही मन बूदबूदाता हूं- धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।  माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय

जीवन की आपाधापी के बीच यार-दोस्त गाम में किसानी कर रहे अपने इस पागल दोस्त के यहां आ जा रहे हैं। जब भी दूर नगर-महानगर से कोई दोस्त यार आता है तो मन के भीतर हरियाली और भी बढ़ जाती है। मैं कबीर में खो जाता हूं और बस यही कहता हूं- 

दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय  
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥

2 comments:

ritu said...

अापके हर लिखे का इंतजार रहता है।मिट्टी की खुशबु लिए ये शब्द अाॅखों के सामने हरियाली का रंग रुप खीच देते हैं।खेतों की फ ्सल के बारे मे तो ज्यादा नही जानती पर टिकोले,महुअा अौर लीची के बाग याद है।तमन्ना है कभी इस किसान अौर उसके खेत,बगीचों से मिलु

Ramakant Singh said...

“दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ “

ग्राम्य जीवन की लाज़वाब झांकी