इंटरनेट के साथ प्रयोग करने की आदत जब से पड़ी है, तब से ही मन की दीवारें छोटी पड़ने लगी है। ऐसा लगता है मानो मैं यहां सदियों से भटक रहा हूं, सारे के सारे चेहरे परिचित नजर आते हैं। मुझे यह अपनी जमीं दिखती है, जिसकी सीमाओं को मुझे तोड़ना है। रेडिफ, याहू, हॉट मेल और फिर जीमेल से यारी कभी महंगी नहीं पड़ी। सब एक दूसरे से जुड़ते चले गए और मेरे मैं का विस्तार होता चला गया। साथ ही साथ घर की बाउंड्री का भी विस्तार होने लगा।
पहले ऑरकुट और फिर फेसबुक व ट्विटर की मेरे मानस में उपस्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही है। इन सबने मेरे मैं का विस्तार किया है। कबीर कहते हैं न- बिन धरती एक मंडल दीसे/बिन सरोवर जूँ पानी रे/गगन मंडलू में होए उजियाला/बोल गुरु-मुख बानी हो जी… । इंटरनेट के विभिन्न सोशल नेटवर्किंग चैनल मेरे लिए यही कर रहे हैं। ये सब मेरे लिए कबीर रच रहे हैं, गुलजार बो रहे हैं और तो और, कुछ रेणु के बीज भी बो रहे हैं। ऐसे में मुझे यह दुनिया किसानी लगती है, मैं काश्तकार बन जाता हूं, जो मेरा मूल (रूट) है।
ऑरकुट के दोस्त फेसबुक पे कॉमन हो गए तो जिले के पड़ोसी और संबंधी यहां और भी करीबी बन गए। कोई जब यह पूछता है कि आपने क्या कमाया तो मैं झटके से कह देता हूं- दोस्त कमाए हैं। आगे वाला सोचता है कि फेंक रहा है लेकिन एन वक्त पर अंदर का दोस्त साधो-साधो कह रहा होता है। फेसबुक पर 1600 दोस्तों का आंकड़ा पार करते हुए मन में कई सवाल चिता-भस्म भर झोरी होकर नाच रहे हैं, मानो बनारस के किसी घाट पर पंडित छन्नू लाल मिश्रा कह रहे हों- नाचत गावत डमरूधारी, छोड़ै सर्प-गरल पिचकारी/ पीतैं प्रेत-धकोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी….।
पता नहीं इन दिनों कभी कभी रूहानी अहसास होने लगता है, आत्मालाप की श्रेणी में यह पोस्ट लिखते वक्त मैं इस अहसास को डिफाइन नहीं कर पा रहा हूं क्योंकि ऐसे वक्त पे मन बावरा हो जात है। आप आवारा भी कह सकते हैं। खैर , दोस्त बढ़ते जा रहे हैं, 50 से 100 फिर 1600। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर दोस्तों को एकजुट करने में उम्र कभी बाधा नहीं बनी। 70 साल के राधेश्याम वर्मा भी दोस्तों की लिस्ट में शामिल हैं तो 14 साल का नीतिन भी। राधेश्याम जी किताबों पर चर्चा करते हैं तो नीतिन फिल्मों पर बात करता है। हरी बत्ती जलते देख (चैट) सब एक हो जाते हैं। बातचीत औपचारिक से कब आत्मीय हो जाती है पता ही नहीं चलता।
अक्सर फेसबुक के रेडलाइट पर कई लोग टकराते हैं। ऐसे अवसरों पर लगता है, मानो यह कोई स्टेज हो, जहां सब हर दिन सज-धज के आते हैं और अपने रोल को निभाकर निकल जाते हैं, अपने घर की ओर। और मैं, इन सबमें अपना रुप खोजने जुट जाता हूं। तभी पर्दे के पीछे से रवींद्र नाथ टैगोर के शब्द गूंजने लगते हैं- विश्वरुपेर खेलाघरे/ कतई गेलेम खेले/ आपरूप के देखे गेलेम/दुटि नयन मेले../जाबार दिने.....( In the theater of this world, I played many games and assumed many roles, while doing so, "I" "saw" "me", with my own eyes...)
हमने कभी भी इस दुनिया (सोशल नेटवर्किंग) को आभासी नहीं माना, और न ही ख्वाब। हम इसमें भी एक शहर बसाते हैं, एक चौक तैयार करते हैं। ऐसे लोगों से और करीब आते हैं, जिससे मन की बातें थोक के भाव में कर सकें, जिन्हें ड्राइंगरुम में बुलाकर अच्छी चाय पिला सकें.... सब अपने हैं यहां, कोई नहीं है पराया....। आइए, आप भी मेरे फेसबुक आंगन में दाखिल हो जाइए, कुछ बात करते हैं, कुछ कहानियां गढ़ते हैं, कुछ गीत गाते हैं....।
जाते-जाते गुलजार को पढ़ लीजिए-
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते/ जब कोइ तागा टूट गया या खत्म हुआ/फिर से बांध के/ और सिरा कोई जोड़ के उसमे/आगे बुनने लगते हो…..
*(शीर्षक गुलजार से उधार)
7 comments:
मुबारक हो इतने सारे दोस्त.......
हाँ ये अपना ही बिस्तार है....
fb पर लोग जुड़ते चले जाते हैं....रोज कुछ ना कुछ लोग ..
हालाँकि कभी कभी सँभालने मुश्किल हो जाते हैं...मेरी भी लिस्ट 500 से ऊपर तो होगी,...ज्यादे भी होती लेकिन दरसा अमन अक्सर दो इन महीने पर fb की सफाई करता रहता हूँ शायद यही वजह है की मेरी लिस्ट छोटी है..वजह ये है की मुझे सबको याद रख पाना जरा मुश्किल होता है...इसलिए लिस्ट में उतने ही लोग हैं जिन्हें जानता हूँ....पता नहीं क्यों लोग वर्चुवल स्पेस की दोस्ती को कोसते रहते हैं मुझे कभी वर्चुवल दोस्तों से कोई परेशानी पेश नहीं..दोस्ती करते रहिये...शुभकामनायें...पोस्ट बेहतर है.......
सही कह रहे हैं गिरीन्द्र भाई। फेसबुक एक मंच की तरह काम करता है। मैं जब भी किसी शहर जाता हूं तो अपने फेसबुक फ्रेंड लिस्ट में वहां के दोस्तों को सूचित कर देता हूं और जिस शहर के रास्ते पैरों नहीं लगे वहां उनके पंखों पर उड़ने लगता हूं। सही में फेसबुक को धन्यवाद।
badhiya likha hai guru, cheejon ko shandaar dhang se joda hai....
aur han, doston ki iss khas sankhya par badhai. Bhagwan se dua hai ki aap facbook ki pitch ke Sachin bankar yun hi duaandhar record banate rahiye.......
एक दम अलग हट के लिखते हैं आप। आत्मीयता से भरी बातें।
एकांत साधक के जैसी पोस्ट, मशगूल, जिसके लेखन में अपेक्षा का कोई दबाव न हो, लेकिन जिसमें स्वयं निर्धारित मर्यादा और स्तर का संतुलन हो.
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