Sunday, March 13, 2011

वह छपरा में रिक्शा नहीं हांक पाएगा...


दोपहर दो बजे, ऑफिस में लंच के बहाने बातचीत जारी थी, सामने मयंक शुक्ला बैठे थे। रोटी और सब्जी के साथ वे कॉफी का मजा ले रहे थे। यहां हम नौकरी के अलावा एक और दुनिया है  जैसे मसलों पर लंतरानी दिए जा रहे थे। तभी मयंक भाई ने कहा हाल ही में उनकी मुलाकात एक रिक्शे वाले से हुई थी। बस क्या था, हम माइग्रेंट मसले पर बात करने लगे।

 उन्होंने रिक्शे वाले की जो कहानी सुनाई, उसके बाद मैं प्रवासियों के समुद्र में गोते लगाने लगा। रिक्शे वाले की कहानी सुनाते वक्त मयंक भाई भावुक हो गए थे। मैंने उनकी आंखों को डबडबाते देखा। चश्मे के नीचे आंखों की कोर में नमी साफ झलक रही थी। वे बता रहे थे कि वह रिक्शा वाला बिहार के छपरा का है। रिक्शा वाला खुद मयंक भाई को बताया कि वह जाति से ब्राह्मण है  और इसी वजह से अपने जिले में वह रिक्शा नहीं चलाता है, उसे रोजी-रोटी के लिए कानपुर आना पड़ता है। मयंक भाई न रोटी को सब्जी में लपेटते वक्त स्पष्ट किया कि उन्होंने रिक्शे वाले से जाति नहीं पूछी थी, बस घर-बार के बारे में पूछा था। यहां जाति के जंजीरों में फंसे समाज को रिक्शे वाले ने अपने अनुभवों से सामने लाने की कोशिश की।

रिक्शे वाले ने मयंक भाई से कहा कि जबतक हम अपने इलाके में होते हैं तबतक हमारे सिर पर जाति का बिल्ला लटकता रहता है लेकिन इलाके की सरहद को पार करते ही वह प्रवासी हो जाता है और जाति की दीवार ढह जाती है, यहां (कानपुर) रिक्शा हांकते वक्त कोई उसे नहीं पहचानता है, इस वजह से जाति की दीवार ढह जाती है। मयंक भाई की आंखों देखी के पीछे समाज का असली चेहरा है, जिसे हम अक्सर समझ कर भी नहीं समझने की भूल करते हैं।

मेरे गांव में भी ऐसे कई लोग हैं जो दिल्ली में रिक्शा हांकते हैं, सोसाइटी के सिक्योरिटी गार्ड हैं लेकिन जबतक मुझे उनके पेशे के बारे में पता नहीं था तबतक वे मुझे बताते थे कि वे सब दिल्ली में ट्यूशन पढ़ाते हैं लेकिन एक बार जब आईटीओ पर मेरी मुलाकात उनमें से एक से हो गई तो सच मेरे सामने खड़ा हो गया। दरअसल हम सब अपने गांव, कस्बा और जिला में अपनी पुरानी पहचान को ढोते हैं लेकिन यह बताने की हिम्मत नहीं करते कि हमारा वर्तमान क्या है।

 मयंक भाई के रिक्शे वाले की कहानी मुझे शहर से और करीब ला दिया है। शहर,  जो हम जैसे लाखों प्रवासियों के लिए गल्फ है (यहां गल्फ का इस्तेमाल रवीश की रिपोर्ट से उधार है), जहां हम अपनी पहचान बनाने के लिए बस जाते हैं, महीने की पहली ताऱीख को एटीएम से पैसे निकालते हैं..तो कोई मनीऑर्डर से अपनी बीवी-बच्चे को पैसे भेजता है। छपरा निवासी इस रिक्शे वाले की भी यही कहानी है।

 मयंक भाई ने कहा कि रिक्शे वाले की आंखों में उन्होंने ढेर सारे सपने देखे हैं, उसे अपने बेटे को खूब पढ़ाना है, आईआईटी कानपुर तक पहुंचाना है। हम चाहते हैं कि उसके सभी सपने हकीकत में बदले। बकौल मयंक भाई रिक्शे वाले का भाई हैदराबाद में एक एमएनसी में ऊंचे ओहदे पर है, उसकी जाति नहीं पूछी जाती है। अब धनवान होना भी एक जाति है, सबसे ऊंची जाति.,... यही हमारे वक्त की हकीकत है।

टिफीन का डब्बा खाली हो चुका था, हमारी बातें खत्म नहीं हो रही थी। एसी की ठंडक तन के साथ मन को भी हिला रही थी। मन ही मन खुद पे गुस्सा भी आ रहा था कि अक्सर हम समस्याओं पर चर्चा एसी कमरों में ही क्यों करते हैं, ग्राउंड पर जाने में हिचकिचाते क्यों हैं? कंफर्ट जोन से बाहर क्यों नहीं निकलना चाहते हैं...

7 comments:

Brajmohan Kumar said...

गिरीन्द्र जी, ये एक कड़वी सच्चाई है जिससे हम अपने-अपने घरों से हजारों मील दूर हर दिन दो-चार होते रहते हैं. बस एक छोटा-सा सवाल है जो अंदर बार-बार उठता रहता है कि आखिर वो गुरूर जो अपने प्रदेश में ऊँची जाती का होने के कारण हर जगह, हर पल दिख जाता है, प्रदेश से पलायन करते ही गायब क्यों हो जाता है?

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

@ Brajmohan- ब्रजमोहन भाई, मुझे यह गुरूर पसंद नहीं है. ऐसे गुरुर रखने वालों पर मुझे गुस्सा नहीं तरस आता है। वैसे ऐसे गुरुर पालने वालों की संख्या में कमी आ रही है, जो पोजिटिव साइन है.

Anonymous said...

जातिवादी सोच पर मुझे गुस्सा आता है, आपने मयंक भाई के बहाने मेरे गुस्से को और भी बढ़ा दिया है. सोसाइटी को सोच बदलनी होगी.

Anonymous said...

कभी-कभी लंतरानी से भी काम की बातें निकल जाती है. बहस जारी रखें।
आदर्श, चंडीगढ़

Anonymous said...
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Anonymous said...

आपने जब यह लिखा- अब धनवान होना भी एक जाति है, सबसे ऊंची जाति.,... यही हमारे वक्त की हकीकत है। तो क्या सोच रहे होंगे? मैं तो फिलहाल यही सोच रही हूं। वैसे आपने कास्टिज्म पर अलग तरीके से वार किया। अच्छा यह भी लगा कि आपने खुद को भी नहीं बख्शा। एसी कमरे में बहस करने की बात कहकर आपने खुद को भी कटघरे में खड़ा किया है, अच्छी बात है। हमें सच से भागना नहीं चाहिए, गलती को स्वीकारना भी हिम्मत का काम है.
पूजा शर्मा

Nabeel A. Khan said...
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