Friday, March 04, 2011

सोसाइटी में सिटी या सिटी में सोसाइटी


शहर की आंखों में चमक की खोज जारी है, कि तभी नजर फ्लैट्स से बने सोसाइटी पर टिकती है। यहां सोसाइटी शहर बन जाता है, जहां सबकुछ है, मोहल्ला है, कस्बा है, एक से बढ़कर एक पड़ोसी हैं। लोगों से यदि गांव, कस्बा और शहर बनता है तो सोसाइटी भी लोगों से सिटी बन जाती है। हर कुछ तो यहां भी है जो चहारदिवारी के बाहर है (यहां चहारदिवारी के बहर शहर को देखा जा रहा है)।

गाडि़यों की भरमार
, सुबह ऑफिस निकलने की जद्दोजहद, बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लिए स्कूल वैन की चिलमपों... सबकुछ। ऐसे में गौर करने की बात यह है कि हम अपने भीतर कितने शहरों को शामिल किए रहते हैं। एक शहर जहां हम रोजी-रोटी के इंतजाम के लिए पहुंचते हैं, एक शहर, जहां हम आशियाने के तलाश के लिए पहुंचते हैं। दरअसल हम यह सोचते हैं कि जहां हम रहे वहां चैन मिले। इस चैन के चक्कर में हमारे भीतर शहरों का अंबार खड़ा हो जाता है।

एक वक्त आता है जब हम निकल पड़ते हैं एक और नए शहर की खोज में। इसकी मिसाल हमें तथाकथित मेट्रो शहरों में मिलती है। मसलन दिल्ली से वैशाली, वैशाली से इंदिरापुरम, इंदिरापुरम से मोहननगर...... यह श्रृंखला चलती ही रहेगी..चैन की खोज के लिए। यह कहानी अब केवल दिल्ली की नहीं रही, भागलपुर में भी आउटर भागलपुर बन रहा है, पूर्णिया भी सदर से आगे बढ़ते हुए फैलता जा रहा है। यह केवल शहर का ही विस्तार नहीं है, यह कंक्रिट का भी विस्तार है।
जारी...

1 comment:

Anonymous said...

ye chain ki nai sar k upar chhat ki khoj hai, aur jeb me paise ki...
thoughtful write up