Thursday, September 10, 2009

तटभ्रंश


तटभ्रंश मनोज कुमार झा की कविता है। उन्हें हाल ही में भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित से किया गया है। वे दरभंगा में रहते हैं। उन्हें स्थगन कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया गया है। मुझे उनकी कविता तटभ्रंश काफी पसंद है क्योंकि इससे कई गुजरी बातें, शब्द आदि अनायास ही याद आ जाते हैं। मनोज कुमार झा ने सीएसडीएस के लिए विक्षिप्तों पर पड़ती निगाहों की दास्तां विषय पर शोध कार्य भी किया है।

फिलहाल पढ़िए तटभ्रंश।

शुक्रिया

गिरीन्द्र



आँगन में हरसिंगार मह मह
नैहर की संदूक से माँ ने निकाला था पटोर

पिता निकल गए रात धाँगते

नहीं मिली फिर कहीं पैर की छाप
पानी ढ़हा बाढ़ का तो झोलंगा लटकाये आया मइटुअर

सरंगी लिए माँ ने किया झोलंगा को उसकी देह का

और ताकने लगी मेरा मुँह

ऐसा ही कुर्ता था तुम्हारे बाप का

पता नहीं किस वृक्ष के नीचे

खोल रहा होगा साँसों का जाल
उसी पेड़ की डाल से झूलती मिली परीछन की देह

जिस के नीचे सुस्ताता था गमछा बिछाकर
सजल कहा माँ ने –

यों निष्कम्प न कहो रणछोड़

उत्कट प्रेम भी रहा हो कहीं जीवन से ।

3 comments:

Vipin Behari Goyal said...

सरंगी लिए माँ ने किया झोलंगा को उसकी देह का

और ताकने लगी मेरा मुँह

ऐसा ही कुर्ता था तुम्हारे बाप का

पता नहीं किस वृक्ष के नीचे

खोल रहा होगा साँसों का जाल


बहुत अच्छा लिखा है

Udan Tashtari said...

आभार इसे पढवाने का भाई!!

Dipti said...

कविता सुन्दर है।