Saturday, February 07, 2009

राह इतनी आसान नहीं थी - 1

यहां आने पर कई चीजें जहां छूट गई तो वहीं कई चीजों से जुड़ा भी। यादों को लिखने की कोशिश में हूं और उसे सिलसिलेवार यहां पेश करना चाहता हूं। श्रृंखला की पहली पेशकश- राह इतनी आसान नहीं थी - 1

हम गांव से शहर आए हैं, कहीं चीजें वहीं से मन में जुड़ी है। लाख बार बदलाव की बयार चलें तो भी हम में कुछ ऐसा है जो बदल नहीं सकता है। गांठ बंधी है वो तो टूटेगा नहीं न। नहर, सड़क और फसल हमारे जेहन में है। हर बार गांव से शहर के होस्टल जाते समय आंखों में आंसू आते थे, जो आज भी (दिल्ली आते समय) आते हैं मानो कुछ छूट रहा हो जैसे।

दिल्ली आने के बाद एक शब्द से परिचय हुआ जिसे यहां ‘छोटा शहर’ कहते हैं। पता नहीं है यह छोटा शहर क्या होता है। मेरा मानना है कि यह शब्द ऊंची इमारतों और ट्रैफिक जाम वाले शहर की डिक्शनरी से आया है।

मेरे गांव में एक नहर है जो हमारे खेतों को पानी दिया करती है। खेत में फसल उगते थे (और आज भी उगते है) और उससे आए पैसे से बाबूजी घर चलाया करते हैं। एक समय (जब हमारे यहां संयुक्त परिवार हुआ करता था) बड़े परिवार पर अधिप्तय के साथ गांव पर भी उनकी पकड़ हुआ करती थी।
सन् 1970-80-90-2000 के बीच एक बड़े कमरे में बैठकर पूरे गांव पर वे नियंत्रण किया करते थे।

शहर से एक घंटे की दूरी पर मेरा यह गांव बाबूजी के कदम ताल पर ही आगे बढ़ता था। कई गांव वालों की तरह मुझे भी उनका यह स्टाइल पसंद नहीं था लेकिन घर में छोटा और उनका एक मात्र वारिस होने के कारण कई जंजीरें मुझमें बांधी गई।

कम उम्र में गांव से निकालकर शहर के होस्टल में रखा गया। अनुशासन ऐसा था जैसे घर में था। सबकुछ घड़ी की सूई पर टिका रहा करता था। मास्टर साब के इशारे पर एक एकड़ के कैंपस में सबकुछ चला करता था। जब इंटर की पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली आया, जिसे मेरे यहां एक अलग ही निगाह से लोग देखते हैं और मन से समझते हैं, तो पहली बार बंदिशों से खुद को आजाद पाया था।

शहर दिल्ली में न सोने के लिए समय बंधा था और न ही खाने का समय। हम मन के बादशाह हुए पहली बार इसी दिल्ली में। बादशाहत आज तक बरकरार है। कई बार कई तरह की बंदिशें तोड़ी, जिसे सुनकर घर वालों की भौहें तन जाती है। बहनों वाले घर में जन्म लेने से मन की दीवारें ऊंची है। बावरा मन यहीं हुआ। मन में दबी चीजें को आजमाने का मौका यहीं दिल्ली में मिला।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी.... फिल्म पहली बार जब देखी तो मन जैसे बावरा हो उठा। पहली बार गुलाम अली साब को यहीं सुना और देखा (पुराने किले में) तो मन में और भी धमाल मच उठे। बहनों की शादी में शहनाई और ढोल-ताशे की आवाज के बाद हारमोनियम की धुन यहीं सुनी। इतना कुछ होने के बाद मन की कुछ गांठे यहां नहीं खुल पाई। सत-सत दुहाई मेरे उसी गांव की जहां से कभी मुझे नफरत भी हुआ था।

उसी गांव और कोसी की ही देन है कि आदमी की आदमियत मेरे अंदर कुछ ही सही लेकिन अभी है।
गांव के कारण ही पड़ोस के साथ अपनापन बना रहता है और दिल खोलकर किसी से मिलने की चाहत हमेशा आवारगी करती रहती है लेकिन गालिब चचा के इस शहर में कई लोगों में बस यही कमी मुझे खलती है। शायद ये कुछ लोगों की मजबूरी हो......।

जारी है।

3 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर....अगली कडियों का इंतजार रहेगा।

सुशील छौक्कर said...

गालिब चचा के शहर में अभी आप सभी से कहाँ मिले है। आपके अनुभवों की कडियों का आगे इंतजार रहेगा।

विनीत कुमार said...

सच कहूं गिरि, गांव का तो अपना अनुभव नहीं रहा लेकिन घर ही समझो फिलहाल। छूट जाने के बाद घर भी पहले की तरह अपना नहीं लगता। मुझे नहीं लगता कि छूटे हुए गांव की तरफ अब जाओगे तो वो अपनापा महसूस करोगे, जो छुटपन में किया करते थे।