भवानीप्रसाद मिश्र की यह कविता आज पेश है, सचमुच कभी न कभी हर कोई चाहता होगा चोंगा उठा कर फेंकना ......आईये आज भवानीप्रसाद मिश्र के संग सत्य स्वीकारें।
मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि चीर कर धरती धान उगाता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूं
आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं
आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूं याने!
5 comments:
बहूत अच्छी रचना धन्यवाद !!
सभ्य और असभ्य क्या होता है पता नही। पर इतना पता है कि रचना सुन्दर है।
धन्यवाद , झाजी ।
IANS India Abroad News Service नहीं है?
अगर भवानी प्रसाद बहुत पहले इन लक्षणों को असभ्यता कह गए हैं , तो भदेसपना और असभ्यता हमें बहुत प्यारी है अच्छी कविता पढवाने के लिए झा जी को बधाई
जय जबलपुर-जय भवानी प्रसाद मिश्र जी-अभी अभी जबलपुर से उनके बहुत से गीत सुन कर लौटा हूँ. आपने आनन्द दिला दिया. आभार.
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
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शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
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