Tuesday, January 30, 2007

क्या दिन थे यारो

नज़ीर अकबराबादी - बचपन
क्या दिन थे यारो
वह भी थे जबकि भोले भाले ।
निकले थी दाईं लेकर फिरते कभी ददा ले ।।
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।
हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।
मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।
दिल में किसी के हरगिज़ ने शर्म ने हया है ।
आगा भी खुल रहा है, पीछा भी खुल रहा है ।।
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।
यां यूं भी वाह वा है और वूं भी वाह वा है ।।
कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।
मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।
उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना।।
माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।
कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।
गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुंह में घोटते हैं ।।
बाबा की मूंछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।
गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।
कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।।

जो उनको दो सो खालें, फीका हो या सलोना ।
हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।


जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।

परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।।
भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।।
ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।
यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।
अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।
जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।

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