सत्य को स्वीकारना साहस का काम है, क्योंकि सत्य 'क़ट्टा' है, चल गया तो चल गया। नहीं चला तो...! ऐसे में सत्य को स्वीकारना सबसे बड़ा साहस है और हाँ, इस साहस का प्रदर्शन नहीं होता है, बस मन से हो जाता है वैसे ही जैसे क़ट्टा चल जाता है।
कुछ लोगों के जीवन को देखता हूं तो "साहस" का अहसास होने लगता है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, उसीसे जीवन में आनंद हासिल करने का पाठ पढ़ने को मिले तो लगता है- "धत्त, हम तो नाहक ही परेशान थे अबतक। ये सबकुछ तो माया है।"
यह सब टाइप करते हुए कबीर का लिखा मन में बजने लगता है- “माया महाठगिनी हम जानी ..निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.....” ठीक उसी पल मन के रास्ते पंडित कुमार गंधर्व की भी आवाज भी कानों में गूंज लगती है- “भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी…..कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी”
कभी कभी लगता है कि जीवन में कोई कथा संपूर्ण होती है क्या? इस दौरान मुझे जीवन आंधी के माफिक लगने लगती है, सबकुछ उड़ता नजर आने लगता है।
जब मेरे बाबूजी सक्रिय रूप से गाम - घर किया करते थे तो उस वक्त कई लोग उनके आसपास रहते थे, आते- जाते रहते थे। उनकी बैठकी में एक व्यक्ति जीप से अक्सर आया करते थे, खूब सिगरेट फूंका करते थे। वह धन, जमीन आदि की बात किया करते थे। किसी भी हाल में धन को हासिल करना उनका उदेश्य हुआ करता था। हालांकि वो आज भी वैसी ही बात करते हैं। बाद में पता चला कि वो किसी बड़े जमींदार परिवार से थे।
वहीं उनकी बैठकी में एक माली भी आते थे, जो सूरदास की बात करते थे। दोपहर के वक्त बाबूजी की बैठकी में वे बैठते और सूरदास के पद सुनाते। उनके कपड़े वाले झोले से सुंगध आती रहती थी, वन तुलसी और फूल की। वह शायद जानते थे कि माया के फेर में मन के भीतर कितनी कालिख भर जाती है। एक -आध घण्टे रहने के बाद वे जब जाने की तैयारी करते तो जाते वक्त झोले से एक मुट्ठी फूल और वन तुलसी की कुछ पत्तियां टेबल पर रख जाते। सब फूल सदाबहार गेंदा का होता था। उसकी खुशबू में हम खो जाते थे।
बाबूजी की डायरी में उस जीप वाले भूपति का एक भी पन्ने में जिक्र नहीं है जबकि उस माली के बारे में लंबी कहानी लिखी है। और एक बात, बाबूजी उस माली से हम बच्चों को मिलवाया करते थे लेकिन सिगरेट फूंकते, दुनिया जहान की बात करने वाले उस भूपति से बाबूजी ने कभी भी बच्चों को नहीं मिलवाया।
दरअसल इस दुनियादारी में हम बहुत ही तेजी से भागते नज़र आ रहे हैं जबकि सत्य तो दुनियादारी में एक पर्दे की तरह है, जिसे उठाने के लिए हमें हल्का बनना होता है। दूब की तरह हल्का, जिसके ऊपर ओस की बूंद भी टिक जाती है। यही तो जीवन है, जहाँ हम हर किसी को ठहरने का मौका दे सकते हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम लूटपाट की योजना बनाते हैं या फिर जीवन जीते हुए एक मुट्ठी फूल और वन तुलसी की कुछ पत्तियां टेबल पर रख आगे बढ़ जाते हैं।
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