कुर्ते से अजीब मोह है। कुर्ता किसी रंग का हो, उसमें कॉलर होना चाहिए और हां, बटन जो हो
वह काले रंग का। आप सोच रहे होंगे कि कहीं आपका कथावाचक सठिया तो नहीं गया है,
हालांकि
सच कहूं तो ऐसी कोई बात नहीं है। दरअसल आज सुबह
कुर्ते को शरीर में लपेटते वक्त वह अजीब तरह का व्यवहार कर रहा था। कुर्ते
के इस
व्यवहार से कथावाचक के दिमाग में विस्मयादिबोधक का डंडा-बिंदी (!) नहीं
टपका बल्कि
उसने कायदे से कुर्ते के साथ गुफ्तगू करने की योजना बना ली। ठीक उसी वक्त
उसे दिनकर की वह कविता भी याद आ गई, जिसमें वे कहते हैं- आसमान का सफर और
यह मौसम है जाड़े का, न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही भाड़े का....।
खैर, जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है तो कथावाचक कपड़े को लेकर अपनी मर्जी शुरु करता है। दिल्ली के जनपथ पर लगने वाला बाजार उसे खींचता है और वह वहां से ढेर सारे कॉलर-धारी कुर्ता उठाने लगता है। हर रंग के, काला रंग हो या फिर टूस-टूस लाल, सब उसके खाते में गिरते हैं। तो आज सुबह कुर्ते के व्यवहार ने उसे जता दिया कि कपड़े की जिंदगी तन से कैसे जुड़ जाती है।
उसे सत्यवती कॉलेज के पिछवाड़े में फैले खेल-मैदान की याद आती है, जहां एक बार ऊंची चहारदिवारी का सहारा लेकर लेटे-लेटे सर्दी में धूप सेकते वक्त अरविंद पद्मनाभन ने पूछा था कि आखिर कुर्ता ही क्यों? शर्ट क्यों नहीं? कथावाचक ने सवाल छूटते ही जवाब ठेला था- 'कुर्ता आजादी है, तन की आजादी' जवाब सुनकर अरविंद खूब हंसा था। वह तन की आजादी का अर्थ निकालने लगा था।
सर्दी की उस शाम बतरा सिनेमा के पास मौजूद चावला ढाबे में कथावाचक ने कुर्ते की व्याख्या शुरु की थी। अरविंद की हंसी के जवाब में उसने कुर्ते के फ्री-साइज पर बकैती शुरु की थी..राजमा और फ्राइड चावल के साथ। ढलती शाम कथावाचक कुर्ते की लंबाई को लेकर भी बकैती करने लगा। उसे कुर्ते घुटने के ऊपर तक ही सहज लगे, घुटने के नीचे आते ही कुर्ता उसे अ-व्यवहारी लगने लगता है। कुर्ते से संबंध बनाए रखने के लिए उसकी लंबाई पर वह हमेशा सजग रहा।
जब बकैती लंबी हो गई तो अरविंद ने गरमा-गरम कॉफी पिलाई थी और बतरा मे एक सिनेमा दिखाने का वादा किया था, वादा, वादा ही रहा। अरविंद सूट-बूट में अब बेंगलुरु के एक बड़ी कंपनी में बकैती करता है, बकौल अरविंद- "दोस्त, रात में सोते वक्त उजला कुर्ता पहनता हूं, तन की आजादी के लिए...। दिन में पहन नहीं सकता क्योंकि टाई लपेटनी पड़ती है हमें।" कथावाचक उसके जवाब को सुनकर मुस्कुराने लगता है।
खैर, कुर्ते के सफर में फेब इंडिया की भी अपनी उपस्थिति है, जो जायज भी है। इस ब्रांड के तले बिकने वाले कुर्ते अपनी सादगी के लिए मशहूर हैं हालांकि ब्रांड बनते ही मूल्य अधिक चुकाना पड़ता है यह अलग बात है। वैसे कुर्ते को यह बात पता है..। यहीं आधी बांह वाला कुर्ता भी अपना झंडा बुलंद कर दिख जाता है।
कथावाचक को अंचल के बांग्ला भाषी इलाके की याद आती हैं, जहां बड़े-बुजुर्ग आधा बांह वाले कुर्ते में उसे दिखते हैं। बचपन का मानस कुलांचे मारने लगता है। उसे किशनगंज के सुभाष पल्ली चौक पर मौजूद कालीबाड़ी के सामने मिठाई की दुकान में बैठने वाले चिन्मय दा की याद आती है, उनकी बोली कान में गूंज उठती है- ऐ, सुनो तो, तुमि रसगुल्ला खेबो कि.....?
कुर्ते की कथा लंबी चल सकती है, उतनी ही लंबी, जितनी लंबी अपनी जिंदगी। क्योंकि कुर्ते में रंग होता है, हर रंग की अपनी कहानी होती है और देखिए न लिखते वक्त मन में मित्र राजशेखर का लिखा भी बजने लगा है- "मेरा कातिक रंग, मेरा अगहन रंग, मेरा फागुन रंग, मेरा सावन रंग…पल पल रंगते रंगते रंगते रंगते, मेरे आठों पहर मनभावन रंग....।"
कुर्ते से उसकी ढेर सारी यादें जुड़ी
है। गोल गला वाला कुर्ता उसे कभी पसंद नहीं आया, उसे तो कुर्ता में कॉलर चाहिए। कॉलर लगते ही कुर्ता उसका हमदम बन जाता है।
लेकिन बचपन में उसे गोल कुर्ता ही नसीब होता था, वो भी गले में कढ़ाई वाला..लखनवी कढा़ई। पता नहीं उसे उस उजले रंग के गोल
गले वाले कुर्ते से क्यों नफरत थी।
वह जब भी गोल गला वाला कुर्ता शरीर में डालता तो लगता मानो जबरन किसी ने माला चढ़ा दिया हो। वैसे यह भी सच है कि बड़ी बारिकी से उस रेडिमेड कुर्ते के गले पर कढ़ाई चढ़ी होती है। कला के जानकार इसमें कई रंग, कई कोण ढूंढ सकते हैं लेकिन कथावाचक को कॉलर वाले कुर्ते में ही सारी कला दिख जाती थी। यह उसका कॉलर के प्रति मोह हो सकता है।
वह जब भी गोल गला वाला कुर्ता शरीर में डालता तो लगता मानो जबरन किसी ने माला चढ़ा दिया हो। वैसे यह भी सच है कि बड़ी बारिकी से उस रेडिमेड कुर्ते के गले पर कढ़ाई चढ़ी होती है। कला के जानकार इसमें कई रंग, कई कोण ढूंढ सकते हैं लेकिन कथावाचक को कॉलर वाले कुर्ते में ही सारी कला दिख जाती थी। यह उसका कॉलर के प्रति मोह हो सकता है।
खैर, जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है तो कथावाचक कपड़े को लेकर अपनी मर्जी शुरु करता है। दिल्ली के जनपथ पर लगने वाला बाजार उसे खींचता है और वह वहां से ढेर सारे कॉलर-धारी कुर्ता उठाने लगता है। हर रंग के, काला रंग हो या फिर टूस-टूस लाल, सब उसके खाते में गिरते हैं। तो आज सुबह कुर्ते के व्यवहार ने उसे जता दिया कि कपड़े की जिंदगी तन से कैसे जुड़ जाती है।
उसे सत्यवती कॉलेज के पिछवाड़े में फैले खेल-मैदान की याद आती है, जहां एक बार ऊंची चहारदिवारी का सहारा लेकर लेटे-लेटे सर्दी में धूप सेकते वक्त अरविंद पद्मनाभन ने पूछा था कि आखिर कुर्ता ही क्यों? शर्ट क्यों नहीं? कथावाचक ने सवाल छूटते ही जवाब ठेला था- 'कुर्ता आजादी है, तन की आजादी' जवाब सुनकर अरविंद खूब हंसा था। वह तन की आजादी का अर्थ निकालने लगा था।
सर्दी की उस शाम बतरा सिनेमा के पास मौजूद चावला ढाबे में कथावाचक ने कुर्ते की व्याख्या शुरु की थी। अरविंद की हंसी के जवाब में उसने कुर्ते के फ्री-साइज पर बकैती शुरु की थी..राजमा और फ्राइड चावल के साथ। ढलती शाम कथावाचक कुर्ते की लंबाई को लेकर भी बकैती करने लगा। उसे कुर्ते घुटने के ऊपर तक ही सहज लगे, घुटने के नीचे आते ही कुर्ता उसे अ-व्यवहारी लगने लगता है। कुर्ते से संबंध बनाए रखने के लिए उसकी लंबाई पर वह हमेशा सजग रहा।
जब बकैती लंबी हो गई तो अरविंद ने गरमा-गरम कॉफी पिलाई थी और बतरा मे एक सिनेमा दिखाने का वादा किया था, वादा, वादा ही रहा। अरविंद सूट-बूट में अब बेंगलुरु के एक बड़ी कंपनी में बकैती करता है, बकौल अरविंद- "दोस्त, रात में सोते वक्त उजला कुर्ता पहनता हूं, तन की आजादी के लिए...। दिन में पहन नहीं सकता क्योंकि टाई लपेटनी पड़ती है हमें।" कथावाचक उसके जवाब को सुनकर मुस्कुराने लगता है।
कथावाचक को गोल गला और कॉलर के बीच
कुर्ते का एक और रुप चंपानगर में भी दिखता है। अब देखिए न, कुर्ते के संग अंचल भी इस पोस्ट में समा गया है। पूर्णिया जिले में एक
रजवाडा़ हुआ करता था- राज-बनैली। इस परिवार के कुछ सदस्यों के तन पर जो कुर्ता
होता है उसके गले के नीचे रेखा सीधी नहीं बल्कि वक्र होती है, मतलब टेढ़ी। बाएं से दाएं की तरफ मुड़ी रेखा। कुर्ता का यह
रुप इस वस्त्र की आजादी की तरफ भी हमें मोड़ता है। वैसे लोग-बाग तो यही कहते हैं
कि भागलपुरी सिल्क से बने कुर्ते पर ऐसी रेखाएं सबसे अधिक जंचती है।
खैर, कुर्ते के सफर में फेब इंडिया की भी अपनी उपस्थिति है, जो जायज भी है। इस ब्रांड के तले बिकने वाले कुर्ते अपनी सादगी के लिए मशहूर हैं हालांकि ब्रांड बनते ही मूल्य अधिक चुकाना पड़ता है यह अलग बात है। वैसे कुर्ते को यह बात पता है..। यहीं आधी बांह वाला कुर्ता भी अपना झंडा बुलंद कर दिख जाता है।
कथावाचक को अंचल के बांग्ला भाषी इलाके की याद आती हैं, जहां बड़े-बुजुर्ग आधा बांह वाले कुर्ते में उसे दिखते हैं। बचपन का मानस कुलांचे मारने लगता है। उसे किशनगंज के सुभाष पल्ली चौक पर मौजूद कालीबाड़ी के सामने मिठाई की दुकान में बैठने वाले चिन्मय दा की याद आती है, उनकी बोली कान में गूंज उठती है- ऐ, सुनो तो, तुमि रसगुल्ला खेबो कि.....?
कुर्ते की कथा लंबी चल सकती है, उतनी ही लंबी, जितनी लंबी अपनी जिंदगी। क्योंकि कुर्ते में रंग होता है, हर रंग की अपनी कहानी होती है और देखिए न लिखते वक्त मन में मित्र राजशेखर का लिखा भी बजने लगा है- "मेरा कातिक रंग, मेरा अगहन रंग, मेरा फागुन रंग, मेरा सावन रंग…पल पल रंगते रंगते रंगते रंगते, मेरे आठों पहर मनभावन रंग....।"
[*"चाँद का कुर्ता" रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविता है|]
4 comments:
Very good. Loved it.
Gulzar ke kurte-payjame ki tarah aapne bhi apna trademark dressing style bana liya hai :)
अथ: श्री कुर्ता कथा...
बहुत ही लाजबाब. यूँ कुर्तों के मामले में फेव इंडिया का वाकई जबाब नहीं.
sahi hai guru, vaise hamne bhi ke kurta khareeda hai, hare rang ka. Apka dekha tha tabhi se soch liya tha, kisi din dalenge photo.
Post a Comment