Monday, August 01, 2011

टोला, मोहल्ला और फेसबुक

नेटवर्क तो सोशल बन गया है लेकिन इसके साथ ही यह एक ऐसी दुनिया रच रहा है, जिसमें समाज के सभी तथ्य मौजूद हैं पर एक अलग रंग में। मेरे लिए यह नेटवर्क एक संस्कृति है। साहेबान, मैं अपने खास फेसबुक और उस जैसे तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट की बात कर रहा हूं।

पिछले हफ्ते ही फेसबुक पर मेरा जुड़ाव दो समूहों (फेसबुक की भाषा में ग्रुप)  से हुआ है। मेरे लिए ये समूह नहीं बल्कि टोला और मोहल्ला है। दरअसल फेसबुक पर दोस्तों के ग्रुप और टैग से जोड़ने की आदत से मैं अक्सर परेशान रहता हूं लेकिन पिछले हफ्ते दो करीबी फेसबुकिया यारों ने जब मुझे दो अलग-अलग समूहों से जोड़ा तो खुशी मिली।

कोसी और सरिसब पाही नामक ये दोनों ग्रुप मेरे लिए खास हैं।  इनसे जुड़कर ऐसा लगता है मानो ये दोनों समूह मूल को जानने की छटपटाहट को शांत करने के लिए बनाई गई हो। हालांकि इन दोनों जगहों पर किए जाने वाले पोस्ट, जिसे हम-आप चर्चा कह सकते हैं, मेरी इस सोच पर सवाल भी उठाते हैं। खैर, काम की चीजों को अपने हिस्से में समेटने में हर्ज किया है, आखिर यहां भी कुछ काम का मिल ही जाता है।

सरिसब पाही पर इलाकाई खुश्बू का असर है तो कोसी आदतन बहसों में, भूगोल में उलझी है। कभी यह अपने हिस्से को जलमग्न करती है तो कभी अपने हिस्से से बाहर की दुनिया में दखल देने लगती है। मेरे लिए ये दोनों ग्रुप इस पार से उस पार की कथा की तरह है।

सरिसब पाही समूह पर एक मित्रवर लिखते हैं- "सरिसबक चमैनिया डाबर शंकर मिश्रक कथा सँ जुडल अछि। आइयो ओकरा प्रति बड आदर भावना छै। मुदा सोचल जाए जे ओ पोखरि किएक नहि कहओलक। पोखरि आ डाबर मे की अन्तर। जकर यज्ञ भेल हो, से पोखरि भेल। ओहि चमाइनक खुनाओल डबराक यज्ञ के करबितथि। चमाइन यजमानक पौरोहित्य के करबितथि। आर्थिक अभाव नहि छल। तखनि यज्ञ किएक नहिँ भेल। की आबो ओएह स्थिति अछि। देखल जाए जे कहिया ओहि सँ डाबर शब्द हटैत अछि।"  

मित्रवर के इस पोस्ट से अपनापा सा लगता है। सरिसब से दूरी यह पोस्ट पाट देती है, ठीक वैसे ही जैसे किसान पटसन (पटुआ, जूट) को पानी में रखता है और उससे रेशा निकालता है। मैं पोखर को लेकर बचपन से सुनती आ रही कथाओं में लिपट जाता हूं। नानी मां कहती थी कि पोखर की शादी होती है, बीच पोखर में  लकड़ी के मोटे टुकड़े  को स्थापित किया जाता है, इसके बाद ही वह पवित्र होती है। ननिहाल में घर के आगे बड़े पोखर में खड़ी लकड़ी याद आने लगती है। मित्रवर ने पोस्ट में चमैनिया डाबर का जिक्र किया तो मैं लोक कथाओं और यादों में डूबकी मारने लगा।

उधर, कोसी पर लोग नदी के बहाने अपनी कथा बांचने में लगे है। वहां एक मित्र लिखते हैं-कोशी नदी ने अपने ही धरोहरो को जमीन्दोज करते रहने का काम किया है|  ठीक इसके विपरीत धरोहरों को संजोने के आपके कार्यों ने एक तरह से इस नदी के विघटणकारी चरित्र के खिलाफ़ लड़नेवाले व्यक्तित्व के रुप मे आपको चिन्हित किया है, जिसके लिये बड़े साहस की जरुरत होती है और जो आपके पास प्रचूर है| यह ग्रुप भी आपके पिछले कार्यों की तरह साहसिक और प्रसंसनीय है| मेरी बधाई और शुभकामनाये स्वीकार करें।

यहां तो कोसी और कोशी लिखने पर भी बहस चल पड़ी, खैर यह बहस खत्म हो गई है।  इस ग्रुप में लोग अंचल को साझा कर रहे हैं। बातों ही बातों कोसी के जिला मुख्यालयों की खबरों को रख रहे हैं लेकिन इन सबके बीच मुझे मूल कोसी गायब होती दिखती है लेकिन यहां लोगों की आवाजाही बढ़ रही है, इसलिए आशा है कि यहां भी बातें बनती रहेगी। कोसी की गंध का अहसास यहां देर सवेर जरूर होगा।

दूसरी और मेरा अपना मन इन दोनों समूहों के बीच इस पार से उस पार की कथा बुनने में जुटा है। ऐसा लगता है मानो अपने कामत के आगे दस साल में काटकर बेच दिए जाने वाली लकड़ियों की गाछी में खड़ा हूं। कुछ पल के लिए गाछी आरण्यक की भांति लगती है लेकिन भ्रम टूटता है तो पता चलता है कि इसे तो पैसे के लिए लगाया गया है, कल ही इसे काटकर प्लाइवुड फैक्ट्री भेज दिया जाएगा।

इन अनुभवों के बावजूद इंटरनेट से इतर भी कोसी और सरिसब को समझने में जुटा हूं। मूल को समझने की अपनी कोशिश, जारी रहे। कबीर बुदबुदाते नजर आते हैं- "जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं...." । लगता है मैं विषयांतर हो रहा हूं।

1 comment:

सञ्जय झा said...

wah...girindra bhai.....gamak mait ke
charcha ka mon hariya deliyek.......

khoob likhu....khoob jibu(partrakar ke lel likhab jiban chaik)

pranam.