Friday, February 05, 2010

जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग

मेरा सोचना है कि सूफी दोहे में डूबने के बाद आपके पास शब्द कम पड़ जाते हैं क्योंकि आप शब्दों से काफी दूर निकल जाते हैं। ऐसे वक्त में आपकी अनुभूति का ग्राफ बढ़ जाता है। मुझे लगता है कि हमें शब्दों से परे कुछ सोचने की कला सूफी दोहे सीखाती है। अमीर खुसरो के दोहे तो यही कहते हैं। पढ़िए और खुसरोमय हो जाइए..।


रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।

जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।



खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।

जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।



चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।

ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।



खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।

पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया प्रस्तुति।आभार।

सतीश पंचम said...

एक अलग ही तरह का स्वाद मिलता है सुफी शब्दों से।

बढिया पोस्ट।

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया पढ़कर..आभार इस प्रस्तुति का.