Friday, September 06, 2024

डाक से ही कविताओं से भरी किताब : बख्तियारपुर

किताबें जब डाक के मार्फत आती है तो उसका सुख अलग ही होता है। डाक से आई किताब की यात्रा हमें चौंका देती है, खासकर तब जब आपको पता नहीं होता है कि जिसने यह किताब भेजी है, डाक से, उसे आप पहचानते भी नहीं! ऐसी ही एक किताब , कविताओं से भरी हाथ आई है- बख्तियारपुर। 

यह विनय सौरभ की किताब है। कविता संग्रह है, जिसमें स्थानीयता लबालब भरी है। 
एक पाठक के तौर पर उन कविता, रिपोर्ट्स, कहानियों से मुझे खास लगाव है, जिसमें संबंधों और स्मृतियों का लेखा-जोखा रहता है। विनय जी से अपनी मुलाकात नहीं है, न ही परिचय। फेसबुक पर हाल ही में उनसे जुड़ना हुआ। अब जब लिखना-पढ़ना लगभग छूट सा गया है, ऐसे दौर में जब डाक से किताब आती है तो स्मृति में पुराने दिन घुमड़ने लगते हैं। 

यह कविता संग्रह बार-बार पढ़ने का सुख देती है। विनय सौरभ को जितना पढ़ा, उससे यही मालूम हुआ कि वे स्मृतियों के कवि हैं। याद को वे एक खास तरीके से बुन देते हैं, स्वेटर की तरह। और जब आप उन स्मृतियों को पढ़ते हैं तो एक गर्माहट का अहसास होता है। 

इस संग्रह में एक कविता है- हाट की बात

‘हाट जाना मुझे मेरे पिता ने सिखाया
मैंने उनके साथ कई शहर बदले
पर हाट जाना बदस्तूर जारी रहा
सोलह बरस पहले ,
जिस दिन आखिरी सांस ली पिता ने
वह रविवार का दिन था और मैं अपने गांव की हाट गया था....’

संग्रह में मौजूद कविताओं का पढ़ते हुए लगता है कि स्थानीयता के प्रति मोह रखता, स्मृतियों को अभिव्यक्त करता यह कवि अपने समय को न केवल परख रहा है, बल्कि उसका हिसाब किताब भी लिख रहा है।

अपना मानना है कि ऐसा लेखक जहां भी जाएगा, गांव, शहर, कस्बा, टोला, उसे पढ़कर लिख देगा। आप इस कवि के साथ स्मृतियों के जरिए अपने अपने हिस्से की यात्रा कर सकते हैं। उनकी कविताओं में डुबकी लगाते हुए लगता है कि स्मृतियों से लबरेज़ विनय सौरभ के पास एक वृहत स्मृति कोश है, जिसमें मानवीय रिश्तों का लेखा-जोखा है।

विनय भाई ने इस संग्रह में गर्व से स्थानीयता को चित्रित किया है। इस संग्रह से अपना लगाव इस वजह से भी है क्योंकि इस किताब में पिता को लेकर भरपूर कविताएं हैं। 

उन सब कविताओं को पढ़ते हुए मैं बाबूजी के करीब पहुंच जाता हूं। पिता के कई रूप हैं जिन्हें कवि ने देखा है। साथ ही पिता के साथ किये गये व्यवहार, पिता की मजबूरियाँ, पिता के साथ बहनों के रागात्मक रिश्तों का उसे जो कुछ अनुभव हुआ और उसे उसने कविताओं में ढाल दिया है, सहजता से,  बिना किसी दिखावे के।

एक तरफ़ पिता के जाने के बाद खूँटी पर टँगी और पसीने से भीगी उनकी क़मीज़ ऊर्जा और विश्वास देती है, बहनें पिता के लिए सबसे ज़्यादा प्रतीक्षारत रहती हैं और ‘पिता जब घर आते हैं थोड़ी सी संभावित ख़ुशी लिये अपने चेहरे पर तब कल्पना की उडानें भरने लगती हैं बहनें’ तो दूसरी तरफ़ मजबूरियों में घिरे पिता जब थके कदमों से घर लौटते हैं तो दार्शनिक बन जाते हैं, जिसे कवि ने कुछ यूं उकेर  दिया : 

‘दादी से पूछेंगे/ उसके स्वास्थ्य के बारे में/ छोटे भाई से पूछेंगे स्कूल और पढ़ाई के बारे में/ माँ से पूछेंगे टखने और कमर के दर्द के बारे में’, लेकिन वे कभी नहीं बताएँगे कि ‘लड़के वालों ने क्या कहा !’

पिता के धैर्य और सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं है। ‘पिता की शवयात्रा में बातचीत’ में कवि की दर्ज पंक्तियाँ गवाह हैं- 

‘लोगों ने तो यहाँ तक कहा- यह सिर्फ़ मृत्यु से हारा!/ बहन ने भी यही कहा था/ क्योंकि कई बीमार रातों का अनुभव/ उसके पास था/ पिता को मृत्यु के साथ संघर्षरत देखते रहने का।’

मैं इन दिनों उनकी यह कविता बार-बार पढ़ रहा हूं। मुझे याद है जब बाबूजी का निधन हुआ तो उनके शव को लेकर पूर्णिया से चनका जा रहा था, उनके शव संग दो लोग और थे वाहन में, एक तुलसी का पौधा था। जो संग थे वे बाबूजी को अपने जीवन से जोड़कर याद कर रहे थे। मैं बस सुन रहा था। 

विनय सौरभ भाई की कविताओं को पढ़ते हुए लग रहा है कि उन्होंने मेरे मन को लिख दिया है। उस दिन कुछ कुछ यही सब मन में चल रहा था। पिता की शव यात्रा के साथ मन के भीतर जो कुछ चल रहा था, लग रहा है, विनय सौरभ भाई ने उसे उकेर दिया। 

विनय सौरभ भाई की कविता में वैसे भी पिता हैं जो पुत्र के शहर में बस जाने के बाद नितांत अकेले हो जाते हैं। ऐसे ही एक दोस्त के पिता से संभावित मुलाक़ात के बहाने कवि बहुत कुछ कह जाता है। 

विनय सौरभ की इस संग्रह में कुल 88 कविताएँ हैं। सभी कविताएँ गहरे छाप वाली है। कथात्मक शैली में वे बेहद सहज तरीके से अपनी बात कहते गए हैं। उनकी हर एक कविता में उदासी भी है और रिश्तों का तानाबाना भी है।

और चलते चलते इस संग्रह की मेरी प्रिय कविता: 
'ताड़ के हाथ पंखे ' की अंतिम पंक्ति को पढ़िए और सोचिए कि हम कहाँ जा रहे हैं-

मेरे पूर्वजों ने 
जिन्होंने ताड़ के हजारों पेड़ लगाए 
क्या सोचा होगा कभी 
कि एक दिन उन्हीं का खून 
इधर- उधर भटकेगा 
वह भी ताड़ के पंखों के लिए!!
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किताब: बख्तियारपुर
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन 
मूल्य: ₹250


Thursday, August 01, 2024

पूर्णिया, ख्याल गायिकी और कुमार साहेब

बिहार का पूर्णिया जिला हाल ही में आपराधिक घटनाओं को लेकर लगातार खबरों में है। कल रात भी एक व्यक्ति की सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई, इस तरह की घटनाओं से पूर्णिया की छवि धूमिल होती है। 

लेकिन इन सबके बीच नई पीढ़ी को यह भी बताने की जरूरत है कि अपना पूर्णिया कभी सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हुआ करता था। 
यहां एक राजकुमार हुए, राजकुमार श्यामानंद सिंह। उन्हें ' संगीत भास्कर ' की उपाधि प्राप्त थी। उन्हें बंदिशों से प्रेम था। वे इस बात की बहुत ख्याल रखते थे कि सुर ठीक से लगे। उन्होंने संगीत की शिक्षा कलकत्ता के उस्ताद भीष्मदेव चट्टोपाध्याय से प्राप्त की।  

कुमार साहेब संगीत के बाज़ारीकरण के खिलाफ थे। इसलिए अपने जीवन काल में कभी भी किसी म्यूज़िक कंपनी को रिकॉर्डिंग का अवसर नहीं दिया। जहां तक उनके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी है, उसके अनुसार कुमार साहेब और सचिन देव बर्मन गुरुभाई थे।

पूर्णिया का निवासी होने के नाते यह सोचकर आज भी हम रोमांचित हो जाते हैं कि उस समय के सभी बड़े शास्त्रीय गायकों की आवाजाही कुमार श्यामानंद सिंह के घर पर लगी रहती थी।

उस्ताद फ़ैयाज़ खान साहिब (आफताब ए मौसिक़ी),उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खान साहिब,उस्ताद मुबारक़ अली खान,उस्ताद निसार हुसैन खान, पंडित डी वी पलुष्कर, सुरश्री केसरबाई केरकर, सवाई गंधर्व, उस्ताद विलायत हुसैन खान साहिब,उस्ताद हाफ़िज़ अली खान साहिब,उस्ताद अल्ताफ हुसैन खान साहिब खुर्जा वाले, पंडित जसराज, दिलीप चंद बेदी, उस्ताद मुश्ताक़ हुसैन खान साहिब,पंडित नारायणराव व्यास, पंडित बासवराज राजगुरु, उस्ताद सलामत अली खान और उस्ताद नज़ाक़त अली खान, सरोदवादक बाबा अलाउद्दीन खान, पंडित चिन्मय लाहिड़ी, पंडित रामचतुर मल्लिक, ये सब कुछ नाम हैं जो कुमार साहेब के घर पर संगीत की प्रस्तुति दिया करते थे!

कल साँझ कुमार साहेब की जयंती के अवसर आयोजित कार्यक्रम में जाना हुआ। संयोग से कार्यक्रम शास्त्रीय संगीत से जुड़ा था। छोटे शहर में शास्त्रीय संगीत के प्रति युवाओं और छोटे बच्चों की दीवानगी मेरे प्रिय विषयों में एक है। ठीक वैसे ही जैसे अंचल और पलायन को मैं गंभीरता से देखता हूं। 

ख़्याल गायिकी में प्रमुख राजकुमार श्यामानंद सिंह की जयंती पर आयोजित इस कार्यक्रम में कलकत्ता से कलाकार आए थे। 

वैसे तो राग-धुनों का व्याकरण मुझे आता नहीं है लेकिन शास्त्रीय संगीत खींचता आया है। इसे में योग की तरह स्वीकार करता हूं। 

पूर्णिया जैसे शहर में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में सौ लोगों का जमा होना मुझे रास आता है , एक उम्मीद जगती है कि शास्त्रीय संगीत के प्रति नई पीढ़ी की रूचि बढ़ रही है। 

यहाँ पूर्णियाँ में मुझे कई शिक्षक मिलते हैं जो शुद्ध रूप से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं। कुछ तो शहर पर बंगाल का प्रभाव है तो कुछ यहाँ की माटी का। 

खैर, पूर्णिया को इस बात का मलाल होना चाहिए कि एक दौर में जिस शख्सियत ने इलाके को देश में पहचान दी, उसे पूर्णिया ने कुछ भी नहीं दिया और लगभग भूला दिया!

Tuesday, May 14, 2024

साँझ और गाम

इस मौसम की रात बड़ी अलग होती है। लगभग चार महीने बाद कुछ लिखने बैठा हूँ। शाम ढलते ही अहाते में खड़ा हर पेड़, हर छोटा पौधा कुछ न कुछ सुनाता है। अभी कुछ टिकोले गिरने की आवाज़ सुनाई दी, धप्प! 
शीशम का किशोरवय पेड़ साँझ में इस कदर लगता है, मानो तैयार होकर कहीं निकलना हो। दिन भर की तपती गरमी के बाद हल्की सी हवा चली है, ऐसे में गाछ की पत्तियाँ हिलती दिख रही है, मानो किसी ने बाल में कंघी कर दी हो! 

फूलबाड़ी में सबसे अधिक इठलाती है बेली। इसे शाम से पहले चाहिए पेट भर पानी! प्यास मिट जाने के बाद शाम ढलते ही अहाते को खुशबू देने का काम बेली ही करती है। इस फूल की पत्तियाँ भी कम मोहक नहीं होती, मोटी लेकिन पान के छोटे पत्ते की तरह। फूल की तो बात ही छोड़िये, एक फूल को बस एक गिलास पानी में रख दीजिये! 

उधर, कटहल का पेड़ मजबूती से खड़ा है, आसमां को निहार रहा है। इस पेड़ की टहनी फल के भार से झुकती नहीं है, और भी विनम्र हो जाती है फल देने के बाद। कोई चिड़ियाँ इस पेड़ पर आशियाना बनाई हुई है। 

बगल में ही अमरूद का पेड़ है। इसमें फूल आया है, एकदम दूध की तरह सफेद। दिन में इस पेड़ को गिलहरियाँ घेरे रहती है। शाम से इसे आराम मिला है। अहाते की शांति में यह पेड़ चाँद - तारों से गुफ़्तगू कर रहा है। 

दो बरख पहले सेब का एक पौधा लगाया था, इस साल फल देने की तैयारी में है। बगल में दो लीची के किशोरवय पेड़ हैं, चमगादर का एक झुंड साँझ में इसके आसपास मंडराने लगता है। लाल चिटियाँ भी इस पेड़ से चिपकी रहती हैं।

इस मौसम में गाम की रात कई चीजें सिखाती है। मक्का की तैयारी भी कहीं कहीं चल रही है। मंदिर में लोगबाग गीत गा रहे हैं तो कहीं थ्रेसर से फसल की तैयारी चल रही है।

फिलहाल अरुण कमल जी की कविता की यह पंक्ति याद आ रही है -
"अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार ।"

Monday, March 04, 2024

रेणु और गाम-घर

खेत में जब भी फसल की हरियाली देखता हूँ तो लगता है कि फणीश्वर नाथ रेणु खड़ें हैं, हर खेत के मोड़ पर। उन्हें हम सब आंचलिक कथाकार कहते हैं लेकिन सच यह है कि वे उस फसल की तरह बिखरे हैं जिसमें गांव-शहर सब कुछ समाया हुआ है। उनका कथा संसार आंचलिक भी है और शहराती भी। यही कारण है कि रेणु आंचलिक होकर भी स्थानीय नहीं रह जाते।


रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूँ खुद से बातें करने लगता हूँ। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को खोजने लगा।
गाम-घर में जब भी किसी से मिलता हूँ, बतियाता हूँ तो लगता है कि जैसे रेणु का लिखा रिपोतार्ज पलट रहा हूँ। दरअसल रेणु की जड़े दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है।
रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का महत्व समझ पाया। मुझे याद है 2005 में सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तब Sadan Jha सदन झा सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी, शायद वे रेणु की बात हम तक पहुँचा रहे थे।
अब जब पिछले दिनों को याद करता हूँ तो खुद से पूछता हूँ कि रेणु मेरे जीवन में कब आए? शायद 2002 में। कॉलेज और फिर सराय-सीएसडीएस और सदन झा सर की वजह से!
रेणु के बारे में बाबूजी कहते थे कि “ रेणु जी को पढ़कर नहीं समझा जा सकता है। रेणु जी को ग्राम यात्रा के जरिए समझा जा सकता है। टुकड़ों –टुकड़ों में गाम को देखते –भोगते हुए रेणु बस किस्सा कहानी लगेंगे, रेणु को समझने के लिए रेणु का सुरपति राय बनना होगा, लैंस से नहीं, बिन लैंस से गाम घर को देखना होगा।”
फिर मैं 2024 की शुरुआती महीने को याद करने लगता हूँ। सूरत स्थित सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़ में एसोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत सदन झा सर पूर्णिया आते हैं, पुराने पूर्णिया जिला और फणीश्वर नाथ रेणु की दुनिया को देखने-बुझने। एक बार फिर उनकी वजह से अंचल के करीब होने का मौका मिला और हम फिर बन गए इस अंचल के विद्यार्थी।
गाँव के लोगों से उनकी ही कहानी सुनने लगा, गीत, कथा, उत्सव... यह सब सुनते हुए लग रहा है कि मानो रेणु का लिखा कुछ पढ़ रहा हूँ, एकदम ताजा-ताजा!
रेणु को केवल हम साहित्य से जोड़कर देखने की भूल न करें, रेणु की किसानी, रेणु का स्थानीय लोगों से जुड़ाव, जमीन-जगह और इस अंचल में उनकी पहुंच को समझने की भी जरूरत है। एक व्यक्ति किस तरह से खुद को केंद्र में रखकर एक अंचल का गाड़ीवान बन गया, यह भी तो एक कहानी है। और हम हैं कि उन्हें एक फ्रेम में रखकर दुनिया जहान को मैला आंचल और उनकी कृतियों में बांध देते हैं जबकि रेणु को उनके ही एक पात्र सुरपति राय की नजर से भी देखना होगा...
रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था – “जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला।” इस गीत का भावानुवाद है- सुख के जीवन के लिए, यहाँ आइए, यहाँ ढूंढ़ना है और पाना है..।
इन दिनों जब पूर्णिया जिला के संथाली बस्ती को समझने की थोड़ी बहुत कोशिश कर रहा हूँ तो लगता है कि रेणु ने कुछ काम हम सबके लिए भी छोड़ रखा है, बस अंचल की आवाज को सुनने की जरूरत है, लोगों से गुफ्तगू करने की आवश्यकता है। रेणु के फ्रेम से निकलकर रेणु के ही पात्रों को, सामाजिक चेतना को फिर से समझने की जरूरत है।
यदि आप रेणु के पाठक रहे हैं तो समझ सकते हैं कि परती परिकथा का परानपुर कितने रंग-रूप में रेणु हमारे सामने लाते हैं। गांव की बदलती हुई छवि को वे लिख देते हैं। वहीं मैला आंचल का मेरीगंज देखिए। हर गांव की अपनी कथा होती है, इतिहास होता है। इतिहास के साथ वर्तमान के जीवन की हलचल को रेणु शब्दों में गढ़ देते हैं। गांव की कथा बांचते हुए रेणु देश और काल की छवियां सामने ला देते हैं। लेकिन इन सबके बीच वह बहुत कुछ एक अलग रंग में भी लिख जाते हैं, उस रंग में छूपे असल रंग को देखने के लिए आपको पुराने पूर्णिया जिला को खंगालना होगा।
रेणु की यूएसपी की यदि बात की जाए तो वह है उनका गांव। वे अपने साथ गांव लेकर चलते थे। इसका उदाहरण 'केथा' है। वे जहां भी जाते केथा साथ रखते। बिहार के ग्रामीण इलाकों में पुराने कपड़े से बुनकर बिछावन तैयार किया जाता है, जिसे केथा या गेनरा कहते हैं। रेणु जब मुंबई गए तो भी 'केथा ' साथ ले गए थे। दरअसल यही रेणु का ग्राम है, जिसे वे हिंदी के शहरों तक ले गए। उन्हें अपने गांव को कहीं ले जाने में हिचक नहीं होती थी। वे शहरों से आतंकित नहीं होते थे. रेणु एक साथ देहात -शहर जीते रहे, यही कारण है कि मुंबई में रहकर भी औराही हिंगना को देख सकते थे और चित्रित भी कर देते थे। रेणु के बारे में लोगबाग कहते हैं कि वे ग्रामीणता की नफासत को जानते थे और उसे बनाए रखते थे।
पिछले कुछ महीनों से लिखना लगभग छूट सा गया था, लेकिन 4 मार्च एक ऐसी तारीख है अपने लिए कि एक फिल्ड रिपोर्ट तो लिखा ही चला जाता है, अनुभव गावै सो गीता की तरह।
खेती-बाड़ी करते हुए इस धरती के धनी कथाकर-कलाकार, समृद्ध किसान से मेरी अक्सर भेंट होती है, आप इसे मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन जब भी डायरी लिखने बैठता हूँ तो लगता है सामने फणीश्वर नाथ रेणु खड़े हैं। छोटे-छोटे ब्योरों से लेखन का वातावरण गढ़ने की कला उनके पास थी। रेणु को पढ़ते हुए हम जैसे लोग गांव को समझने की कोशिश करते हैं। शुरुआत में रेणु साथ होते हैं और फिर एक दिन वे दूर चले जाते हैं ...अकेला छोड़कर और तब लगता है अंचल की दुनिया को अपनी नजर से भी देखने की जरूरत है।
रेणु पर लिखते हुए या फिर कहीं बतियाते हुए अक्सर एक चीज मुझे चकित करती रही है कि आखिर क्या है रेणु के उपन्यासों - कहानियों में जो आज के डिजिटल युग में भी उतना ही लोकप्रिय है ।
आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूँ। कई लोगों की स्मृति मन में उभर गई है, सैकड़ों लोगों की। ऐसे लोग जो चनका रेसीडेंसी आए, जिनके संपर्क से मन समृद्ध हुआ, मन के द्वार खुले। आज वे सब याद आ रहे हैं। ये सब मेरे लिए रेणु के पात्र ही हैं। संपादक, पत्रकार, फोटोग्राफर, गीतकार, सिनेमा बनाने वाले, अभिनेता, गायक, अधिकारी, व्यवसायी, विधायक, मंत्री, किसान....ये सब मेरे लिए रेणु के लिखे पात्र की तरह जीवन में आए और मन में बस गए। एकांत में भी ये लोग ताकत देते हैं। ये सब मेरे लिए परती परिकथा की तरह हैं।

Sunday, January 21, 2024

ठंड, हवा और गाम घर का बथुआ साग

धूप को देखना ख्वाब ही तो है! जलावन धू धू कर जल रहा है। लोगबाग दुआर और आंगन में आग के सहारे हैं। 
मोबाइल के युग में तापमान भी खबर बन गया है। हवा की रफ़्तार और अधिकतम - न्यूनतम तापमान की बात अलाव तापते हुए लोग कर रहे हैं। ठंड की वजह से आलू की पैदावार कम हुई है। वहीं मौसम की मार उन किसानों को उठानी पड़ रही है, जिन्होंने अक्टुबर के दूसरे हफ्ते में मक्का लगाया था। 

अभी चावल तैयार करने वाला ट्रैक्टर घर-घर घूम रहा है। उसकी आवाज़ दूर तक जाती है। घर तक चावल का मिल पहुँच गया है। किसान परिवार इस काम में भी लगा हुआ है। वैसे हवा का जोर जुलूम ढ़ा रहा है। 

खेत में अभी साग भी है, बथुआ साग। अंचल का बहुत ही लोकप्रिय साग। इसे बुना नहीं जाता है, धरती मईया किसान को अपने आँगन से यह साग देती है, इसके लिए किसान को कुछ भी खर्च करना नहीं पड़ता है।
बथुआ के संग भांग भी दिख जाता है। मित्र मिथिलेश कुमार राय की एक  कविता की पंक्ति है-  
'जीवन जैसे बथुआ का साग, जैसे सरदी की भोर! '

आग तापते हुए आज बथुआ पर लिखने का मन है। दरअसल बथुआ का अपना अर्थशास्त्र है, जिसकी व्याख्या बहुत ही कम हुई है। बथुआ मुफ्त में ही लोगों को मिलता है, शायद अधिकांश किसान इसके लिए पैसे नही वसुलते। यह एक वीड्स की तरह मक्का, गेंहुँ और सरसों की खेतों मे अपने आप उग जाता है और नवम्बर से फरवरी तक मौजूद रहता है। गाम घर में लोग खेत जाते हैं और बथुआ तोड़ कर ले आते हैं। 

बथुआ उखाड़ा नहीं जाता है, बल्कि बथुआ को तोड़ना पड़ता है।  यह भी कला है। अंगुठे और तर्जनी अंगुली को बथुए के जड़ तक आप ले जाइए और इन दोनों अंगुलियों के नाखून को कैंची की तरह इस्तेमाल करते हुए उसे काट दीजिए। बथुआ का जड़ जमीन मे ही रह जाएगा और खाने वाला हिस्सा आपको मिल जाएगा।

पांच दशक पहले तक बथुआ बिकता नहीं था, लेकिन अब बाजार में बथुआ बिक रहा है, यह गाँव का बाज़ार कनेक्शन है। बथुआ को लेकर एक और कथा गाँव घर में सुनने को मिलती है कि गाँव की बहुएँ बथुआ तोड़ने नहीं जाती है बल्कि गाँव की बेटियाँ ही बथुआ तोड़ती हैं! इस कहानी का सिरा पकड़ना होगा। 

फेसबुक पर मौजूद रूपम मिश्र जी एक कविता है, इसी विषय पर : 

"ये लड़कियां बथुआ की तरह उगी थीं!
जैसे गेंहूँ के साथ बथुआ
बिन बोये ही उग जाता है
ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ,
बेटों की चाह में अनचाहे ही उग आती हैं।"

वैसे मुझे बथुआ के अर्थशास्त्र में रुचि है। किसान के खेत के इस उत्पाद का अपना समाजवादी मॉडल है। मतलब खेत में उपजता है लेकिन मुफ़्त में तोड़ा जा रहा है और गाम घर में मुफ़्त में ही थाली तक पहुँच रहा है! 

खैर, आज पछिया हवा जुलूम ढ़ा रहा है। सर्दी के इस मौसम में बथुआ राम जी हैं, हर दर्द की दवा! 

Sunday, December 24, 2023

अभिनय का ' रंग '

प्रिय Jitendra Nath Jeetu और युवा फिल्मकार सुनील पाल की शार्ट फिल्म है 'रंग'। कहने को फिल्म छोटी है, लेकिन बात बड़ी कह रही है। 
एक ऐसे दौर में जब राजनीति का रंग सिर चढ़कर बोल रहा हो, उस दौर में जीतू भाई की लिखी इस स्क्रिप्ट को देखी जानी चाहिए। 

रंग में मुख्य भूमिका में Manwendra Tripathy  हैं। आप कह सकते हैं कि यह मानवेंद्र के अभिनय का ' रंग ' है! 

फिल्म में साइकिल के जरिये मानवेंद्र आते हैं, देश के सहज नागरिक की तरह। केवल 15 मिनट की यह फिल्म है लेकिन मानवेंद्र भाई ने इन 15 मिनट में रंग दिखा दिया। 

रंग का कारोबार क्या है, इसे आप उनके अभिनय से देख सकते हैं, समझ सकते हैं!

Saturday, December 23, 2023

किसान दिवस की किसानी पीड़ा

आज किसान दिवस है! किसानों का भी दिन होता है, पता नहीं किसानी समाज इससे वाकिफ है कि नहीं ? अपना मानना है कि किसानों का दिन हो महज तारीख नहीं। 
बिहार में हूँ तो बात बिहार के किसानी समाज की ही करूँगा। आप उस परिवार से बात करें जो पहले 10-15 एकड़ जमीन पर खेती करता था। पहले घर के बच्चे पढ़ने के लिए बाहर जाते हैं, फिर नौकरी करते हैं और इसके बाद अपने माता - पिता को साथ ले आते हैं। वह खेती वाली जमीन को गांव में छोड़ बस जाते हैं शहर में। यह एक अजीब तरह का पलायन है। 

जमीन पर जो खेती करते हैं, वे किराया देते हैं। बात का एक सिरा यहां उस किराया देने वाले किसान से भी जुड़ा है। वह भी दरअसल माइग्रेंट लेबर ही है। फसल लगाकर वह भी निकल जाता है दूसरे राज्य में दिहाड़ी करने। वह हर साल कमाने के लिए बाहर जाता है, क्योंकि उसे खेती के लिए पैसा चाहिए।

मेरा मत है कि बिहार के सभी जिले से किसान गायब हैं, मतलब एब्सेंट फार्मर। यह शब्द कुछ वैसा ही है जैसा Absentee landlord होता है। ऐसे में जो बिहार में किसानी कर रहा है, उनकी संख्या अब कम ही बची है। 
आप उन लोगों से बात करिए, जिनके घर में पहले खेती बाड़ी हुआ करती थी, वह आपको बताएंगे कि पलायन केवल श्रमिक वर्ग का ही नहीं हुआ है बल्कि जमीन मालिक किसान परिवारों का भी हुआ है। बिहार में पिछले दो दशकों में बड़ी संख्या में ऐसे लोगों का खेती से मोह भंग हुआ है जिनका घर परिवार खेती बाड़ी से ही चलता था।

पलायन की जब भी बात होती है तो हम श्रमिक की बात करते हैं जो पंजाब, दिल्ली या अन्य राज्यों में दिहाड़ी करने जाते हैं, जो स्किल्ड लेबर कहलाते हैं। लेकिन हम किसान परिवार के पलायन पर एक शब्द नहीं लिखते हैं या कोई आंकड़ा जारी नहीं करते हैं। हमें इस पलायन को समझना होगा।

बिहार में किसान का कोई भी मोर्चा नहीं होने की एक वजह यह भी है। दरसअल गाम का गाम खाली पड़ा है। बड़े जोतदार नौकरी पेशा हो गए हैं और उनकी जमीन पर जो फसल उगाता है, वह शायद खुद को किसान मानता ही नहीं है। बिहार में किसानी की असल पीड़ा यही है, कटु है लेकिन सत्य यही है।

आप मंडी, भाव आदि की बात करते रहिए लेकिन किसान के नाम पर बिहार में आंदोलन राजनीतिक दल के लोग ही करेंगे, किसान चुप ही रहेगा। दिल्ली, पटना में बैठे लोग जो आंकड़ा जारी कर दें लेकिन बिहार में किसानी करने वाले चुप ही रहेंगे। 

खैर, किसान दिवस की शुभकामनाएं! आज डिनर के टेबल पर किसान को याद कर लीजियेगा।

#ChankaResidency
#FarmersDay