खेत में जब भी फसल की हरियाली देखता हूँ तो लगता है कि फणीश्वर नाथ रेणु खड़ें हैं, हर खेत के मोड़ पर। उन्हें हम सब आंचलिक कथाकार कहते हैं लेकिन सच यह है कि वे उस फसल की तरह बिखरे हैं जिसमें गांव-शहर सब कुछ समाया हुआ है। उनका कथा संसार आंचलिक भी है और शहराती भी। यही कारण है कि रेणु आंचलिक होकर भी स्थानीय नहीं रह जाते।
रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूँ खुद से बातें करने लगता हूँ। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को खोजने लगा।
गाम-घर में जब भी किसी से मिलता हूँ, बतियाता हूँ तो लगता है कि जैसे रेणु का लिखा रिपोतार्ज पलट रहा हूँ। दरअसल रेणु की जड़े दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है।
रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का महत्व समझ पाया। मुझे याद है 2005 में सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तब Sadan Jha सदन झा सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी, शायद वे रेणु की बात हम तक पहुँचा रहे थे।
अब जब पिछले दिनों को याद करता हूँ तो खुद से पूछता हूँ कि रेणु मेरे जीवन में कब आए? शायद 2002 में। कॉलेज और फिर सराय-सीएसडीएस और सदन झा सर की वजह से!
रेणु के बारे में बाबूजी कहते थे कि “ रेणु जी को पढ़कर नहीं समझा जा सकता है। रेणु जी को ग्राम यात्रा के जरिए समझा जा सकता है। टुकड़ों –टुकड़ों में गाम को देखते –भोगते हुए रेणु बस किस्सा कहानी लगेंगे, रेणु को समझने के लिए रेणु का सुरपति राय बनना होगा, लैंस से नहीं, बिन लैंस से गाम घर को देखना होगा।”
फिर मैं 2024 की शुरुआती महीने को याद करने लगता हूँ। सूरत स्थित सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़ में एसोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत सदन झा सर पूर्णिया आते हैं, पुराने पूर्णिया जिला और फणीश्वर नाथ रेणु की दुनिया को देखने-बुझने। एक बार फिर उनकी वजह से अंचल के करीब होने का मौका मिला और हम फिर बन गए इस अंचल के विद्यार्थी।
गाँव के लोगों से उनकी ही कहानी सुनने लगा, गीत, कथा, उत्सव... यह सब सुनते हुए लग रहा है कि मानो रेणु का लिखा कुछ पढ़ रहा हूँ, एकदम ताजा-ताजा!
रेणु को केवल हम साहित्य से जोड़कर देखने की भूल न करें, रेणु की किसानी, रेणु का स्थानीय लोगों से जुड़ाव, जमीन-जगह और इस अंचल में उनकी पहुंच को समझने की भी जरूरत है। एक व्यक्ति किस तरह से खुद को केंद्र में रखकर एक अंचल का गाड़ीवान बन गया, यह भी तो एक कहानी है। और हम हैं कि उन्हें एक फ्रेम में रखकर दुनिया जहान को मैला आंचल और उनकी कृतियों में बांध देते हैं जबकि रेणु को उनके ही एक पात्र सुरपति राय की नजर से भी देखना होगा...
रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था – “जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला।” इस गीत का भावानुवाद है- सुख के जीवन के लिए, यहाँ आइए, यहाँ ढूंढ़ना है और पाना है..।
इन दिनों जब पूर्णिया जिला के संथाली बस्ती को समझने की थोड़ी बहुत कोशिश कर रहा हूँ तो लगता है कि रेणु ने कुछ काम हम सबके लिए भी छोड़ रखा है, बस अंचल की आवाज को सुनने की जरूरत है, लोगों से गुफ्तगू करने की आवश्यकता है। रेणु के फ्रेम से निकलकर रेणु के ही पात्रों को, सामाजिक चेतना को फिर से समझने की जरूरत है।
यदि आप रेणु के पाठक रहे हैं तो समझ सकते हैं कि परती परिकथा का परानपुर कितने रंग-रूप में रेणु हमारे सामने लाते हैं। गांव की बदलती हुई छवि को वे लिख देते हैं। वहीं मैला आंचल का मेरीगंज देखिए। हर गांव की अपनी कथा होती है, इतिहास होता है। इतिहास के साथ वर्तमान के जीवन की हलचल को रेणु शब्दों में गढ़ देते हैं। गांव की कथा बांचते हुए रेणु देश और काल की छवियां सामने ला देते हैं। लेकिन इन सबके बीच वह बहुत कुछ एक अलग रंग में भी लिख जाते हैं, उस रंग में छूपे असल रंग को देखने के लिए आपको पुराने पूर्णिया जिला को खंगालना होगा।
रेणु की यूएसपी की यदि बात की जाए तो वह है उनका गांव। वे अपने साथ गांव लेकर चलते थे। इसका उदाहरण 'केथा' है। वे जहां भी जाते केथा साथ रखते। बिहार के ग्रामीण इलाकों में पुराने कपड़े से बुनकर बिछावन तैयार किया जाता है, जिसे केथा या गेनरा कहते हैं। रेणु जब मुंबई गए तो भी 'केथा ' साथ ले गए थे। दरअसल यही रेणु का ग्राम है, जिसे वे हिंदी के शहरों तक ले गए। उन्हें अपने गांव को कहीं ले जाने में हिचक नहीं होती थी। वे शहरों से आतंकित नहीं होते थे. रेणु एक साथ देहात -शहर जीते रहे, यही कारण है कि मुंबई में रहकर भी औराही हिंगना को देख सकते थे और चित्रित भी कर देते थे। रेणु के बारे में लोगबाग कहते हैं कि वे ग्रामीणता की नफासत को जानते थे और उसे बनाए रखते थे।
पिछले कुछ महीनों से लिखना लगभग छूट सा गया था, लेकिन 4 मार्च एक ऐसी तारीख है अपने लिए कि एक फिल्ड रिपोर्ट तो लिखा ही चला जाता है, अनुभव गावै सो गीता की तरह।
खेती-बाड़ी करते हुए इस धरती के धनी कथाकर-कलाकार, समृद्ध किसान से मेरी अक्सर भेंट होती है, आप इसे मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन जब भी डायरी लिखने बैठता हूँ तो लगता है सामने फणीश्वर नाथ रेणु खड़े हैं। छोटे-छोटे ब्योरों से लेखन का वातावरण गढ़ने की कला उनके पास थी। रेणु को पढ़ते हुए हम जैसे लोग गांव को समझने की कोशिश करते हैं। शुरुआत में रेणु साथ होते हैं और फिर एक दिन वे दूर चले जाते हैं ...अकेला छोड़कर और तब लगता है अंचल की दुनिया को अपनी नजर से भी देखने की जरूरत है।
रेणु पर लिखते हुए या फिर कहीं बतियाते हुए अक्सर एक चीज मुझे चकित करती रही है कि आखिर क्या है रेणु के उपन्यासों - कहानियों में जो आज के डिजिटल युग में भी उतना ही लोकप्रिय है ।
आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूँ। कई लोगों की स्मृति मन में उभर गई है, सैकड़ों लोगों की। ऐसे लोग जो चनका रेसीडेंसी आए, जिनके संपर्क से मन समृद्ध हुआ, मन के द्वार खुले। आज वे सब याद आ रहे हैं। ये सब मेरे लिए रेणु के पात्र ही हैं। संपादक, पत्रकार, फोटोग्राफर, गीतकार, सिनेमा बनाने वाले, अभिनेता, गायक, अधिकारी, व्यवसायी, विधायक, मंत्री, किसान....ये सब मेरे लिए रेणु के लिखे पात्र की तरह जीवन में आए और मन में बस गए। एकांत में भी ये लोग ताकत देते हैं। ये सब मेरे लिए परती परिकथा की तरह हैं।
3 comments:
रेणु को बचपन में बड़ी बहनों के बिहार बोर्ड के कथांतर किताब में छपी कहानियां सवंडिया और लाल पान की बेगम से जाना।
लेकिन तब सिर्फ एक लेखक के रूप में ही जान पाए। रेणु के हर रूप को जाने आपके फेसबुक पोस्ट, ब्लॉग और सदन झा सर के पोस्ट से। उसके बाद तो ये पश्चिम कोसी का छोरा, पूर्वी कोसी के हर गांव, मेले में रेणु को सूंघने लगे।
*ढूंढ ने लगे
मुझे अभी भी याद है २०२४ में जब आप, चिन्मय सर और सदन झा सर अंचल में रेणु को समझ रहे थे, डिजिटल मध्यम से हम आप लोग के हर पोस्ट और उन तस्वीरों से अंचल को जानने की भरसक प्रयास किए। सच में अंचल पर अभी भी बहुत लिखना बाकी है। वो आपके शब्दों से जानने को मिलेगा।
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