कमरे से बाहर हम सब अपने अपने हिस्से की दुनिया बनाते हैं, जहाँ हम चलते हैं, रुकते हैं। इस दुनिया में अपना पड़ाव होता है, कुछ उस पड़ाव को मंज़िल समझते हैं, कोई उस पड़ाव से आगे निकल जाता है।
हम सब भीड़ में भीड़ बनकर एक नाटक रचते हैं। कंधों का सहारा लेते हैं और फिर उस कंधे को छोड़, भीड़ में खो जाते हैं। हम सब असल में हर पल नाटक ही तो करते हैं। लेकिन हम इस भरम में रहते हैं कि नाटक अपना है, हम ही इस नाटक के पटकथा लेखक-निर्देशक हैं। जबकि सच तो कुछ और ही होता है। सब कुछ नियति के हाथ का खेला होता है, हम सब निमित्त मात्र हैं!
अपने हिस्से की दुनिया में हम उम्मीद के बीज बोने की शुरुआत करते हैं, जीने के लिए तमाम तरह के प्रपंच रचते हैं। और एक दिन अचानक नाटक में अपना किरदार पूरा हो जाता है!
यह 'अचानक' ही हम सबका सच है, इसी सच में रंग है, इसी सच में सबकुछ है, कभी सुख ही सुख तो कभी दुख का पहाड़!
आइये, उस 'अचानक' को स्वीकार करते हैं, अपने भीतर के रंग को पहचानने की कोशिश करते हैं, खुद को खुद से रिहा करने की कोशिश करते हैं...
[ सतीश कौशिक के निधन की खबर सुनने के बाद आत्मलाप]
2 comments:
बहुत सही कहा आपने।
बिल्कुल सही लिखा है आपने।
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