फसल चक्र के संग एक अलग खुशबू भी साथ- साथ चलती है. हाँ, यह अलग बात है कि बहुतों के लिए यह खुशबू नहीं बल्कि गंध है.
बचपन की स्मृति में चापाकल के पास जमने वाली कजली भी है, हरे रंग की, जिस पर गलती से भी पाँव गया तो फिसल जाना तय है. उसी स्मृति के आसपास जूट (पटसन) की खेती भी है. जूट के फसल को काटकर पानी में कुछ दिन रखा जाना और फिर उससे पाट निकाल कर दुआर पर जब उसे सूखाने के लिए लाया जाता था तो उसकी एक अलग महक हुआ करती थी. घर दुआर उस महक से सरोबार हो जाया करता था. जूट के संग संठी भी आती थी. बच्चे उससे खेल के सामान बनाया करते थे.
ऐसी महक धान से चावल बनाने के दौरान भी आंगन में आया करती थी. बड़े चूल्हे पर धान को बर्तन में उबाला जाना फिर उससे उसना चावल बनाया जाना. स्मृति में ऐसी कई खुशबू है. नाक के साथ ये सब मन में भी बैठा हुआ है. जब भी फणीश्वर नाथ रेणु की यह वाणी सुनता हूँ - 'आवरण देबे पटुआ, पेट भरण देबे धान, पूर्णिया के बसैया रहे चदरवा तान...' तो नाक में अचनाक धान और पटुआ की खुशबू पहुंच जाती है!
ऐसी ही एक सुगंध मूंग की खेती से भी जुड़ी है. मूंग के फसल की तैयारी के बाद जब उसे धूप में सुखाया जाता था और फिर जब उससे दाल बनाने का आयोजन होता था, उस वक्त की याद से भी एक ठोस सुगंध जुड़ा है. मूंग को आँच पर गरम करना फिर उसे जाँत में डालकर दाल बनाने के दौरान एक जादुई गंध नाक में बैठ जाती थी.
स्मृति में माटी की ऐसी कई खुशबू है, जिसे समेटकर हम गाम - घर करते रहते हैं. ऐसी स्मृतियों को लिखने से अधिक जीने की जरूरत है.
आपने तो बिल्कुल गाँव की याद दिला दी। बहुत सुंदर पोस्ट।
ReplyDeleteऐ आवारा यादों फिर ये फ़ुर्सत के लम्हात कहाँ?
ReplyDeleteहमने तो सहरा में बसर की तुम ने गुज़ारी रात कहाँ?
~राही मासूम रज़ा