जाने कितने दिनों बाद क़लम पकड़ी है
पन्नों में लिखने की ख़्वाहिश जागी है
दफ़्तर वाली नौकरी छोड़े
कुल जमा नौ साल हो गए
कि इन गुज़रे सालों में
मैं कितना बदल गया
कुछ आदतें छूट गई
मसलन चमड़े का काला जूता पहनना
सलीक़े से फ़ॉर्मल कपड़े पहनना
दिसंबर में जब ऑफ़िस में होती थी
सर्द शाम में पार्टी
तो सज सँवर कर कोर्ट पहनना
अब यह सब नहीं भाता है...
सच कहूँ तो अब जूते काटते हैं
ठीक स्कूल के दिनों की तरह!
अब चप्पल भाता है
जब भी किसी से मिलता हूँ
सुनता हूँ उनकी बातें
तब ख़ुद ब ख़ुद पाँव नंगे हो जाते हैं
पाँव ज़मीन को स्पर्श करने को
हर वक़्त बेचैन रहता है
जब भी अपने प्रियजनों को सुनने
सामने बैठता हूँ
बस सुनने की ख़्वाहिश रहती है
अब बोला कम
सुना ज़्यादा जाता है
ठीक वैसे ही जैसे
अब छपने से अधिक
पढ़ना अच्छा लगता है !
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