सत्य को स्वीकारना साहस का काम है, क्योंकि सत्य 'क़ट्टा' है, चल गया तो चल गया। नहीं चला तो...ऐसे में सत्य को स्वीकारना सबसे बड़ा साहस है और हाँ, इस साहस का प्रदर्शन नहीं होता है, बस मन से हो जाता है वैसे ही जैसे क़ट्टा चल जाता है।
गाम में शाम ढलते ही लोगबाग के जीवन को देखता हूं तो उस "साहस" का अहसास होने लगता है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, उसी से जीवन में आनंद हासिल करने का पाठ पढ़ने को मिले तो लगता है- "धत्त, हम तो नाहक ही परेशान थे अबतक। ये सबकुछ तो माया है।"
यह सब टाइप करते हुए कबीर का लिखा मन में बजने लगता है- “माया महाठगिनी हम जानी ..निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.....” ठीक उसी पल मन के रास्ते पंडित कुमार गंधर्व की भी आवाज भी कानों में गूंज लगती है- “भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी…..कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी”
कभी कभी लगता है क्या जीवन में कोई कथा संपूर्ण होती है..। इस दौरान मुझे जीवन आंधी के माफिक लगने लगती है, सबकुछ उड़ता नजर आने लगता है।
गाम में एक दिन किसी से बात हो रही थी तो उसके भीतर का भय मुझे सामने दिखने लगा। वह भय मौत को लेकर थी। मौत शायद सबसे बड़ी पहेली है, हम-सब उस पहेली के मोहरे हैं।
आज सुबह सुबह पूर्णिया से चनका आ गया। कैंपस में दाख़िल होते ही बाबूजी याद आने लगे। रात भारी बारिश हुई थी। इस मौसम के फूल पर और दूब व पत्तियों पे पानी ठहरा था। बाबूजी को इन ठहरे पानी से बहुत लगाव था।
दूब-मेरा सबसे प्रिय, जिसे देखकर, जिसे स्पर्श कर मेरा मन, मेरा तन हरा हो जाता है। गाम में हर सुबह इसकी सुंदरता देखने लायक होती है। ओस की बूंद जब दूब पर टिकी दिखती है तो लगता है यही जीवन है, जहाँ हरियाली अपने ऊपर पानी को ठहरने का मौक़ा देती है।
इस उग्र बनते समाज में हम कहाँ किसी को अपने ऊपर चढ़ते देख पाते हैं। ऐसे में कभी दूब को देखिएगा, गाछ की पत्तियों को देखिएगा, वृक्षों में बने घोंसले को देखिएगा।
पता नहीं क्यों, आज सुबह कुछ और लिखते हुए लोक-परलोक की ऐसी कई बातें करने का मन करने लगा है।
जीवन की राह पर हर राहगीर से बातें करने का मन कर रहा है। नदीम कासमी की बात याद आ रही है- रात भारी सही कटेगी जरुर, दिन कड़ा था मगर गुजर के रहा...। गुलजार भी याद आने लगे हैं ..उनका लिखा मन में गूंजने लगा है-
"एक राह अकेली सी, रुकती हैं ना चलती है
ये सोच के बैठी हूँ, एक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुचती है
इस मोड़ से जाते है.. .."
2 comments:
मेरे गाव की कहानी
भोग्या भोग घटे ना तृष्णा, भोग भोग फिर क्या करना |
चित्त में चेतन करे च्यानणों, धन माया का क्या करना |
धन से भय विपदा नहीं भागे, झूंठा भरम नहीं धरना |
धनी रहे चाहे हो निर्धन, आखिर है सबको मरना |
कर संतोष सुखी हो मरिये, पच पच मरणा ना चाहिए
सादा जीवन सुख से जीना, अधिक इतरना ना चाहिए
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