Sunday, March 29, 2020

वे डरते नहीं हैं...

सड़क पार करते लोग मौत से नहीं डरते हैं। वे थकते नहीं हैं। हमने खेत में जुटे लोगों को कभी थकते नहीं देखा है, धनरोपनी , कटनी , फसल की तैयारी, ये सब करते हुए इनके चेहरे की चमक और बढ़ जाती है। वे कभी भी थके नहीं हैं। 

हमने कुदाल लिए लोगों को हारते नहीं देखा है। हाथ में कचिया लिए औरतों को गेंहू काटकर , थकान में रोते नहीं देखा है। वे बस - ट्रक - ट्रेन के बगैर लंबी दूरी तय कर जाते हैं, वे विपत्ति में और उत्साहित दिखते हैं। वे मौसम से लड़ने वाले जीव हैं, विपत्ति उन्हें और मजबूत करती है, मजबूर नहीं।

उनकी तस्वीरों से हमने कल फेसबुक - ट्विटर , अख़बार - चैनल सब रंग दिया।  उस रंग में उनका असली दुख मानो पानी हो गया, यहां - वहां सब जगह बिखर गया। निज़ाम ने उनके दुख को पहले समझा नहीं और जब समझा तब तक बात कमरे से दूर सड़क तक पहुंच गई थी, सैलाब की तरह। 

इन लोगों में हम सब भी हैं। हम सबका घर - आंगन - दुआर इन्हीं सब से है। वे अपनी बेहतरी के लिए गांव से दूर निकल गए थे। दरअसल हर के हिस्से में एक गांव होता है, किसी को एकड़ तो किसी को डिसमल में जमीन होता है।  वहीं हर के हिस्से के अपना घर होता है। 

शहर की दुनिया को ईंट सीमेंट से वे जोड़ते हैं और जहां उनका गाम होता है, जहां उनकी अपनी माटी होती है, वहां वे  इंदिरा आवास के किश्तों में अपना आशियाना बनाते हैं। वहीं उनके अपने लोग रहते हैं, वहीं वे अब लौटना चाहते हैं। 

एक महामारी के भय ने , उसके संभावित संक्रमण ने उन्हें जब रोजगार से  दूर कर दिया तो अब उनके पास अपनी माटी ही बची। ऐसे में वे निकल तो गए लेकिन किस हालात में वे पहुंचेंगे, इसका कोई जवाब नहीं दे सकता। उनके झोले में इस बार कुछ नहीं होगा। भीतर का दुख अपने तक पहुंच कर बस सुख में बदल जाए, यही उम्मीद करते हैं।

 

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