Sunday, November 17, 2019

पूर्णिया में बापू


 “अगर हिंदुस्‍तान के हर एक गांव में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्‍वीर की सच्‍चाई साबित कर सकूंगा, जिसमें सबसे पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगे या यों कहिए कि न तो कोई पहला होगा, न आखिरी।”

गांधी जी की इस बात को जब भी पढ़ता हूं, भीतर साहस का संचार होता है। गांधी जी की बात जब भी कहीं सुनता हूं तो लगता है कि गांधी हैं, यहीं कहीं आसपास।

हाल ही में भितिहरवा आश्रम गया था, वहां पहुंचकर लगा कि गांधी किस तरह चंपारण को अपने मन में बसा लिए। फिर लौटकर अपने शहर पूर्णिया आता हूं। इतिहास के पन्नों में दर्ज बापू की पूर्णिया यात्रा को कई बार पढा था। 2014 के आम चुनाव के दौरान पूर्णिया जिला के टिकापट्टी इलाके की य़ात्रा की थी। य़ात्रा के सूत्रधार सुशांत झा थे। सुशांत भाई ने रामचंद्र गुहा की किताबों का अनुवाद किया है। गांधी जी के शुरुआती जीवन और राजनीतिक सफ़र पर गुहा ने 'गांधी भारत से पहले' किताब लिखी है और उनकी दूसरी किताब जो मुझे गांधी जी के क़रीब पहुँचाने का काम किया वह है- 'भारत गांधी के बाद'। सुशांत भाई हमें टिकापट्टी ले जाते हैं, वे मुझे गांधी सदन दिखाते हैं, याद करता हूं तो सिहर जाता हूं। जहां 1934 में गांधी आए थे, वहां की स्थिति देखकर मन टूट जाता है लेकिन भरोसा नहीं टूटता है।

सुशांत भाई हमें गांधी जी के पूर्णिया यात्रा की कहानी सुनाते हैं, गांधी सदन के बरामदे पे बैठकर हम सुशांत भाई को सुनते रहे लेकिन मन के भीतर इस परिसर की स्थिति को देखकर कई बातें चल रही थी। घंटा भर वहां रहे फिर पूर्णिया लौट आए। वह चुनाव का साल था, शहर में गहमागहमी थी। हर दल के बड़े नेता रैली में भीड़ को संबोधित करते थे हालांकि किसी के मुंह से गांधी और पूर्णिया की बात सुनने को नहीं मिली। वक्त गुजरता है, गाहे-बगाहे टिकापट्टी जाता रहता हूं इस उम्मीद के साथ कि चंपारण की तरह पूर्णिया में भी बापू के पदचिन्हों पर कुछ बनता दिख जाएगा एक दिन...

अब 2014 से आगे हम 2019 की बात करते हैं। सितंबर के महीने में पूर्णिया के जिलाधिकारी राहुल कुमार से मुलाकात होती है, बातचीत में टिकापट्टी का जिक्र होता है। फिर दो अक्टूबर को गांधी जयंती के अवसर पर पूर्णिया समाहरणालय परिसर में एक संगोष्ठी के आयोजन में उनको सुनता हूं। इसके बाद भी बातचीत में गांधी जी के पूर्णिया यात्रा पर बात होती रहती है। 30 अक्टूबर 2019 को जिलाधिकारी राहुल कुमार टिकापट्टी जाते हैं और फिर उसी दिन से गांधी सदन को लेकर बात आगे बढ़ने लगती है, एक उम्मीद जग जाती  है कि शायद अब टिकापट्टी की सूरत बदल जाएगी। फिर एक दिन खबर आती है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार टिकापट्टी स्थित गांधी सदन आएंगे, हालांकि जिला प्रशासन पहले से गांधी सदन को एक रुप देने की तैयारी में जुट गया था और मुख्यमंत्री के आगमन की सूचना के बाद तो टिकापट्टी की तस्वीर ही बदलने लगी।

15 नवंबर 2019 को नीतीश कुमार टिकापट्टी स्थित गांधी सदन पहुंचते हैं। परिसर में हम गांधी के प्रिय भजन वैष्णव जन.. की धुन सुनते हैं। परिसर गांधीमय था। भीतिहरवा आश्रम की झलक वहां दिख रही थी। मुख्यमंत्री परिसर को देखते हैं, वे गांधी सदन के कमरे में लगी फोटो प्रदर्शनी देखते हैं। इन सबके बीच मैं चुपचाप पूर्णिया के जिलाधिकारी राहुल कुमार के चेहरे को देखता हूं, गांधी और उनके चरखे के बारे में सोचता हूं। एक उजड़े- बिखरे परिसर में गांधी की स्मृति को जीवंत करने वाले अपने नायक को मैं चुपचाप देखता रह जाता हूं। रेणु के इस अंचल में साहित्य-कला अनुरागी अपने जिलाधिकारी को बापू की स्मृति को जीवंत करते देखता हूं। मैला आंचल में एक जगह रेणु लिखते हैं- सतगुरु हो! जै गांधीजी! …बाबा …जै ... भीतर रेणु का बावनदास मानो बता रहा हो कि दुनिया जैसी भी हो गांधी रहेंगे....

टिकापट्टी को बदलते देखना दरअसल मेरे लिए एक कहानी की ही तरह है। हम टिकापट्टी के गांधी सदन को महसूस करते हैं, वहां की धूल से ऊर्जा हासिल करते हैं। खादी की धोती पहने और गोल फ़्रेम का चश्मा लगाए सपाट वक्ता गांधी और उनकी लाठी को हम यहां महसूस करते हैं।

बापू की सादगी भी हमें खिंचती है। कोई आदमी इतनी ऊँचाई पर पहुँचने के बाद इस तरह की सादगी कैसे बनाए रखा होगा, यह एक बड़ा सवाल है। महात्मा ने सादगी कोई दिखाने या नाटक करने के लिए नहीं अपनाई थी। यह उनकी आत्मा से उपजी थी। नए रुप में गांधी सदन को देखता हूं तो वही सादगी दिखती है और वही सादगी इस परिसर को जीवंत करने वाले राहुल कुमार में हम देखते हैं।  टिकापट्टी के गांधी सदन को जीवंत करने वाले राहुल कुमार की मेहनत बताती है -

" सुन रे मानुष भाई,
सवार ऊपर मानुष सत्य
ताहार ऊपर किछु नाईं "

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