Sunday, August 18, 2019

गुलज़ार

रेणु और गुलज़ार, दोनों को पढ़ते वक्त मन परत दर परत खुलने लगता है। मेरे लिए दोनों ही शबद-योगी हैं।

गुलज़ार जहां 'आंखों को वीजा नहीं लगता..' बता रहे हैं वहीं रेणु अपने जिले में रहकर भी दुनिया -जहान की बात बताते हैं। यही खासियत है दोनों शबद योगी की। दोनों ही हमें सीमाओं को तोड़ना सीखाते हैं।

मेरे गुलज़ार का आज जन्मदिन है। सफेद लिबास वाले गुलज़ार ने ही मुझे गुलज़ारगी का पाठ पढ़ाया है। कभी मिला नहीं लेकिन लगता है उनसे बहुत पुराना रिश्ता है..शब्द का .. मेरे लिए शब्द का रिश्ता बहुत मायने रखता है।

गुलज़ार साब, जानते हैं न आप कि मेरा मानस आपके लिखे से ही बना है। सफेद लिबास में आपका चेहरा हर वक्त दिल में रहता है। मन के एक कोने में आप रहते हैं तो दूसरी तरफ कलम लिए रेणु। मैं दोनों में खोये रहना चाहता हूं।

गुलज़ार साब, एक बात कहूं, आपके लिखे को सुनकर-पढ़कर कभी यह नहीं लगा कोई शख्स उलझी बात कर रहा है, हमेशा लगा कोई उलझे हुए तार को सुलझा रहा है।

सफेद कुर्ते में, सफेद बालों, पकी हुई दाढ़ी और मोटे फ्रेम के चश्मे में... जब भी आपकी कोई तस्वीर सामने आ जाती है तो लगता है कोई अपना सामने आ गया है।

जब कोई मुझसे पूछता है कि गुलज़ार तुम्हें क्यों पसंद है तो मैं जवाब देने के लिए पल भी नहीं सोचता, बस कह देता हूं- गुलज़ार हमारी भाषा बोलते हैं। मेरे लबों पर तुंरत आपकी यह त्रिवेणी आ जाती है-

"आओ सारे पहन लें आईने.. सारे देखेंगे अपना ही चेहरा..सबको सारे हंसी लगेंगे यहाँ !  "

गुलजार साब, आपके शब्द मौजू होते हैं। मैं तो हर वक्त आपके बोल को दोहरता हूं-

"तेरी आवाज पहन रखी है मैंने कानों में..."

जब बहुत व्यस्त रहता हूं तो भी आपके बोल ही बुदबुदाता हूं। अपने लिए समय नहीं निकाल पाने की जब शिकायत सुनता हूं तो मन ही मन मुस्कुराता हूं और भी बोलने लगगता हूं आपकी ही वाणी-

"बड़ी हसरत है पूरा एक दिन इक बार मैं अपने लिए रख लूँ तुम्हारे साथ पूरा एक दिन बस खर्च करने की तमन्ना है ! "

खेती-बाड़ी करते हुए एक दिन अचानक कॉलेज के दिन याद आए, तब भी आपका लिखा ही कान में गूंज रहा था, यकीन मानिए।


"कॉलेज के रोमांस में
ऐसा होता था,
डेस्क के पीछे बैठे बैठे
चुपके से दो हाथ सरकते
धीरे धीरे पास आते...
और फिर एक अचानक
पूरा हाथ पकड़ लेता था
मुट्ठी में भर लेता था।
सूरज ने यों ही पकड़ा है
चाँद का हाथ फलक में आज। "

फिल्मों की दुनिया में आपकी कविताई इस तरह चली कि हर कोई गुनगुना उठा। एक गुलज़ार टाइप बन गया।

अनूठे संवाद, अविस्मरणीय पटकथाएँ, आसपास की जिन्दगी के लम्हें उठातीं मुग्धकारी फिल्में।परिचय, आँधी, मौसम, किनारा, खुश्बू, नमकीन, अंगूर, इजाजत...हर एक अपने में अलग..।

गुलज़ार साब, बस यूं ही आप लिखते रहिए..रचते रहिए...हम राहगिरों के लिए .....हम तो बस यही कहेंगे-

"गुलजारगी-आवारगी...सबकुछ मेरे लिए गुलजार मेंं...."

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