बिहार में विधानसभा चुनाव का शंखनाद हो चुका है। शहर के चौक- चौराहे से लेकर गाँव के चौपाल तक केवल आगामी चुनाव और उम्मीदवारों की चर्चा हो रही है। कोई नीतीश -लालू की जय-जय कर रहा है तो कोई भारतीय जनता पार्टी की जय-जय में लगा हुआ है।
इन जय-जय के बीच एक बात जो तय दिख रही है वो है जाति की गोलबंदी। बिहार की राजनीतिक व्यवस्था इन दिनों जातीय व्यवस्था टाइप फील करा रही है। लगता है आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में कोई भी पार्टी सत्ता में नहीं आएगी। सत्ता में आएगी तो केवल वही पार्टी जो जाति के आधार पर शतरंजी बिसात बिछायेगी।
बिहार विधानसभा चुनाव पर देश की निगाहें टिकी रहती है। इसे 'मदर ऑफ ऑल इलेक्शन्स ' तक कहा जाता है। इस बार तो काफी कुछ दाव पर लगा है। कहा जा रहा है कि बिहार में चुनावी हलचल देश की राजनीति बदल सकती है।
लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव राजनीतिक अस्तित्व का सवाल बन गया है। वहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कोई भी मुख्यमंत्री उम्मीदवार प्रोजेक्ट नहीं करते हुए नरेन्द्र मोदी फैक्टर पर ही चुनाव लड़ने का फैसला लगभग कर लिया है।
नाजुक जातिगत वोट समीकरणों को साधने के फेर में सभी दलों में महादलित नेता जीतनराम मांझी को अपने साथ करने की होड़ शुरू हो गई है। मांझी महादलित जाति से आते हैं और यह जाति गया, जहानाबाद, खगड़िया, सुपौल, अररिया की करीब 30 सीटों पर निर्णायक भूमिका अदा करती हैं।
इसके अलावा शाहाबाद और चम्पारण की दर्जनभर सीटों पर भी इस जाति का असर है। मांझी अगर भाजपा के साथ जाते हैं या अलग भी लड़ते हैं तो दोनों स्थिति में लाभ भाजपा गठबंधन को ही होगा। लेकिन अगर मांझी फिर से नीतिश-लालू के साथ जाते हैं तो यह बात भाजपा के खिलाफ जाएगी।
ऐसे में भाजपा को सीटों का नुकसान हो सकता है।
पालटिकल पंडितों की नजर पासवान वोटरों पर भी टिकी है। उच्च जातियों का परंपरागत रूप से भाजपा को समर्थन रहा है और नमो फैक्टर के कारण अति पिछड़े वोट बैंक में भी भाजपा ने सेंध लगाई है।
जदयू का आधार वोट-अति पिछड़ा, महादलित और कुर्मी रहा है। जदयू का मौजूदा असर मिथिलांचल के इलाके में अति पिछड़ी जातियों, नालंदा-पटना के कुर्मी बहुल इलाकों और सीमांचल के कुछ मुस्लिम इलाकों पर है।
वहीं लालू की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का आधार वोट यादव-मुस्लिम है। इसी 24 % वोट के बूते पार्टी अपनी जमीन पाती रही है। पार्टी का प्रभाव वाला इलाका सीमांचल, कोसी, मिथिलांचल, सारण, शाहाबाद और मगध रहा है। लालू यादव की पूरी कोशिश है कि नीतीश और मांझी के साथ ही कांग्रेस, एनसीपी और वाम दल मिलकर एक साथ चुनाव लड़ें, हालांकि जदयू को मांझी के साथ पर आपत्ति है। मांझी के तेवर, नीतीश कुमार की महादलित वाली सोशल इंजीनियरिंग को नुकसान पहुंचा रहे हैं तो पप्पू यादव राजद के यादव वोटों में पलीता लगा रहे हैं।
कर्मचारियों को रिझाने की कोशिश हो रही है। सरकारी कर्मचारियों को हाल ही में 6 प्रतिशत महंगाई भत्ते का तोहफा दिया गया है। इसी परिदृश्य में पार्टियों ने अपने नारे और वादे गढ़ना शुरू कर दिए हैं। जैसे भारतीय जनता पार्टी ने जय-जय बिहार, भाजपा सरकार और पिछड़े दलित और किसान, नए बिहार की होंगे शान का नारा उछाल दिया है। काट स्वरूप राजद-जदयू ने लोकसभा चुनाव के दौरान काला धन की वापसी, महंगाई, बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के लोकसभा चुनाव के दौरान किए गए वादों के इर्द-गिर्द भाजपा की घेराबंदी शुरू की है।
वैसे, फिलवक्त बिहार की चुनावी तस्वीर गाँव के उस नहर की तरह लग रही है जिसे खुद यह पता नहीं होता है कि उसमें पानी कब छोड़ा जाएगा। वैसे भी बिहार की राजनीति कब किस मोड़ पर रास्ता बदल ले, इसका अनुमान लगाना बड़ा कठिन काम है। लालू का नीतीश से हाथ मिलाना या फिर नीतीश का भाजपा से गठबंधन तोड़ने की घटना यही सब तो बताती है।
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