Tuesday, March 31, 2015

गांव-घर की स्मृति में रामनवमी


हमारा देश पर्वों को जीवन-उत्सव की तरह जीता है। धर्म से ऊपर उठकर हर समुदाय के लोग पर्व के उल्लास में डूब जाते हैं। सूफी कवियों को पढ़ते हुए आप उस अहसास को जी सकते हैं। रामनवमी को लेकर मेरी स्मृति के खेत हमेशा से हरे ही रहे हैं।

 चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को प्रतिवर्ष नये विक्रम सवंत्सर का प्रारंभ होता है और उसके आठ दिन बाद ही चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी को एक पर्व राम जन्मोत्सव का जिसे रामनवमी के नाम से जाना जाता है
, पूरे देश में मनाया जाता है।
हमारे यहां राम और कृष्ण दो ऐसे प्रतीक रहे हैं जिनका अमिट प्रभाव हर किसी के मानस पर पड़ता ही रहा है। बचपन की यादों की डायरी को यदि आप पलटिएगा तो हर एक पन्ने में इन दो धार्मिक महत्व के चरित्रों के बारे में आपको पढ़ने को मिलेगा।

रामनवमी
, भगवान राम की स्‍मृति को समर्पित है। राम सदाचार के प्रतीक हैं, और इन्हें "मर्यादा पुरूषोतम" कहा जाता है। रामनवमी को राम के जन्‍मदिन की स्‍मृति में मनाया जाता है। राम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, जो रावण से युद्ध लड़ने के लिए आए थे। राम-राज शांति व समृद्धि की अवधि का पर्यायवाची बन गया है। रामनवमी के दिन, श्रद्धालु बड़ी संख्‍या में उनके
जन्‍मोत्‍सव को मनाने के लिए राम जी की मूर्तियों को पालने में झुलाते हैं।

लेकिन हमारी स्मृति में रामनवमी गांव की कहानियों से भरी हुई है। गांव में रामनवमी से पहले बाजार का सारा हिसाब किताब चुकता किया जाता था। दुकानदार वो चाहे हिंदू हो य मुस्लिम, वे बही खाते का रजिस्टर नया तैयार करते थे और पुराने का सारा हिसाब- किताब बराबर करने की कोशिश करते थे। आज हम भले ही कंप्यूटर बिलिंग के दौर में जी रहे हैं लेकिन गांव घरों में आज भी छोटे और बड़े दुकानदार लाल रंग का बही खाता रखते हैं और रामनवमी के दिन पुराने रजिस्टर को एक
तरफ रखकर नए रजिस्टर में हिसाब किताब शुरु कर देते हैं।

बचपन की यादों में डुबकी लगाने पर मेरे सामने कुतुबुद्दीन चाचा का चेहरा दौड़ने लगता है। गांव में उनकी छोटी से एक परचुन दुकान थी, जिसमें जरुरत के सभी सामान मिलते थे। साल भर गांव  वाले उनसे सामान लेते थे। कोई नकद तो कोई उधार। उधार लेने वालों का नाम एक लाल रंग के रजिस्टर में कुतुबुद्दीन चाचा दर्ज कर लेते थे। मुझे याद है कि वे रामनवमी से पहले उधार लेने वाले घरों में पहुंचने लगते थे और विनम्रता से कहते थे कि रामनवमी से पहले कर्ज चुकता कर दें ताकि नए रजिस्टर में उनका नाम दर्ज न हो।

कुतुबुद्दीन चाचा की बातों को याद करते हुए लगता है कि रामनवमी के बारे में हम कितना कुछ लोगों को सुना सकते हैं। खासकर उन लोगों को जो धर्म को चश्मे की नजर से हमें दिखलाने की कोशिश करते हैं। धार्मिक सौहार्द का इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है। जहां तक मुझे याद है कि व्यापारी वर्ग लाल रंग का एक कार्ड भी घरों तक पहुंचाया करते थे, जिसमें जहां रामनवमी की शुभकामना से संबंधित बातें लिखी होती थी वहीं बही-खाते के निपटारे की बात उसी शालिनता से लिखी रहती थी। यह कार्ड मुस्लिम दुकानदार भी छपवाते थे।

गांव-घर की स्मृति सबसे हरी होती है। दूब की तरह, जिस पर हर सुबह ओस की बूंद अपनी जगह बनाए रखती है। रामनवमी की स्मृति दूब की तरह ही निर्मल है। वहीं रामवनवी की शोभा यात्रा का आनंद भी मन में कुलांचे मार रहा है। गांव से शहर की दूरी हम जल्दी से पाटना चाहते थे ताकि शहर की शोभायात्रा का आनंद उठा सकें। राम के प्रति आस्था के साथ शोभा यात्रा के प्रति एक अलग तरह की ललक रही है। दरअसल राम की छवि हमारे मानस में एक ऐसे चरित्र की है, जो सबकुछ कर सकता है। 

राम कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने राम रूप में असुरों का संहार करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। जीवन की आपाधापी में हम वैसे तो सारी सुविधाओं को हासिल करने के लिए कुछ भी करने के लिए उतारु रहते हैं लेकिन मर्यादा को बनाए रखने या उसे हासिल करने की बात भी करने से हिचक रहे हैं। भले ही समय के साथ रामनवमी की शोभायात्रा हाइटेक हो गई हो लेकिन यह  भी सच है कि हम नई पीढ़ी को राम की कहानियों से दूर करते जा रहे हैं।

हम सब नई पीढ़ी को उस मर्यादा पुरुषोत्तम की बात सुनाना या पढ़ाना नहीं चाहते हैं
जो विषम परिस्थितियों में भी नीति सम्मत रहे। जिन्होंने वेदों और मर्यादा का पालन करते हुए सुखी राज्य की स्थापना की। स्वयं की भावना व सुखों से समझौता कर न्याय और सत्य का साथ दिया। फिर चाहे राज्य त्यागने, बाली का वध करने, रावण का संहार करने या सीता को वन भेजने की बात ही क्यों न हो। राम ने दया कर सभी को अपनी छत्रछाया में लिया।

यही वजह रही कि राम की सेना में पशु
, मानव व दानव सभी थे और उन्होंने सभी को आगे बढ़ने का मौका दिया। केवट हो या सुग्रीव, निषादराज या विभीषण। हर जाति, हर वर्ग के मित्रों के साथ दिल से करीबी रिश्ता निभाया। वे न केवल कुशल प्रबंधक थे, बल्कि सभी को साथ लेकर चलने वाले थे। वे सभी को विकास का अवसर देते थे व उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करते थे। उनके इसी गुण की वजह से लंका जाने के लिए उन्होंने व उनकी सेना ने पत्थरों का सेतु बना लिया था

दोस्तों के लिए भी उन्होंने स्वयं कई संकट झेले। इतना ही नहीं शबरी के झूठे बेर खाकर प्रभु श्रीराम ने अपने भक्त के रिश्ते की एक मिसाल कायम की।


आज भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्मोत्सव तो धूमधाम से मनाया जाता है पर उनके आदर्शों को जीवन में नहीं उतारा जाता। अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी भगवान राम अपने पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए वन चले गए और आज देखें तो वैभव की लालसा में हम माता-पिता से दूर होते जा रहे हैं। 

प्रभात खबर में प्रकाशित- 28 मार्च 2015

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