रपट की तस्वीर साभार - चिन्मयानंद सिंह |
पुल एक ऐसा शब्द है, जिसका महत्व सबसे अधिक ग्रामीण इलाकों में समझा जा सकता है। बरसात के मौसम में जब बेकाबू नदियां या नहर गांव को दो हिस्से में बांट देती है तब भले ही सरकार गांव वालों के दर्द को समझ नहीं पाती है लेकिन बांस के सहारे बने चचरी के पुल गांव के दर्द को साझा कर लेती है अपनी ममतामयी आंचल के सहारे।
अब आप पूछेंगे कि भला यह चचरी पुल है क्या? तो आपको बता दें कि चचरी बांस को आपस में बांध कर बनाए गए अस्थाई पुल को कहते हैं। बांस का ही खंबा बनता है और बांस के टुकड़े को आपस में बांधकर आने जाने का रास्ता बनाया जाता है।
देश के अन्य हिस्सों में तो चचरी पुल के दर्शन शायद दुर्लभ हों लेकिन बिहार के अधिकांश ग्रामीण इलाकों में यह चचरी पुल लोगों के जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका है।
कोसी के इलाके में नदी और नहरों की संख्या अधिक है लेकिन उस अनुपात में पुल नसीब नहीं है। ऐसे में गांव का आधा हिस्सा नदी के इस पार है तो आधा उस पार। घर इस पार है तो खेत उस पार, स्कूल इस पार है तो पढ़ने वाले बच्चे उस पार। कहीं कहीं तो अस्पताल और पंचायत भवन तक जाने के लिए लोगों को चचरी पुल का सहारा लेना पड़ता है। केवल लोगबाग ही नहीं बल्कि जानवरों के लिए भी यह पुल वरदान है। बकरी आदि छोटे जानवर इस पुल से एक तरफ से दूसरी तरफ आसानी से निकल जाते हैं।
देश जब मेट्रो और न जाने किस तरह के फ्लाईओवर्स की बातें कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों में एक सामान्य सा कंक्रीट का पुल भी लोगों को नसीब नहीं हो रहा है। सरकार की तरफ आशा भरी निगाहें डाले-डाले जब ग्राम्य समुदाय थक जाता है तब चचरी पुल उनके लिए राम बाण साबित होता है।
दरअसल चचरी पुल का निमार्ण बहुत आसान काम है। बांस के सहारे बनने वाले इस कामचलाऊ पुल के लिए ना किसी टेक्नीकल एक्सपर्ट इंजीनियर की इंजीनियरिंग की जरुरत होती है और न ही लाखों – करोड़ों रुपये के टेंडर पास होने की। इसके लिए तो बस चाहिए बांस और स्थानीय लोगों का सहयोग। स्थानीय लोगों के सहयोग से बांस का जुगाड़ करके चंद घंटों में ही तैयार कर लिया जाता है। दरअअसल कोसी के इलाके में बांस आसानी से उपलब्ध है जिस वजह से यह पुल बनाने में लोगों को दिक्कत नहीं होती है।
चचरी पुल बनाने के लिए पहले बांस को चीरकर बत्तियां बनाई जाती हैं और फिर उन बत्तियों को आपस में गूंथकर जालीदार और मज़बूत चचरी तैयार किया जाता है। यह पुल के ऊपरी हिस्से का काम करती है। उसके बाद नदी के पानी में बांस डालकर खंबे बनाए जाते हैं जिनके ऊपर इस चचरी को टिका दिया जाता है। पुल की मज़बूती खंबो की मज़बूती और चचरी में बांस की बत्तियों की गुंथाई पर निर्भर है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि ज़रूरत ना होने पर इस पुल को उखाड़कर भविष्य के लिए संभाल कर भी रखा जा सकता है।
हालांकि चचरी पुल कंक्रीट की तरह मजबूत तो नहीं होते लेकिन इन पर से मोटरसाइकिल आसानी से निकल जाते हैं। वैसे पुल के लचीले होने के कारण इन पर से सावधानी से गुज़रना पड़ता है। हालांकि गांव वाले इस पर यात्रा करने में अभ्यस्त हो चुके हैं लेकिन शहरी लोगों को इस पर से यात्रा करने में पहली बार जरुर डर लगता है।
कोसी के ग्राम्य इलाकों की लगातार यात्रा करते हुए हमने चचरी पुल के इतिहास को जानने की कोशिश की लेकिन कोई ठोस जानकारी नसीब नहीं हुई। इस पुल को लेकर कोई लिखित दस्तावेज भी हाथ नहीं आया है। आखिर गांवों को जोड़ने वाली इस देसी पुलों का इतिहास तो कुछ जरुर ही होगा। आखिर यह पुल प्रचलन में कैसे आया, इसे जानने समझने की जरुरत है।
पिछले साल फेसबुक पर जब चचरी पुल की तस्वीर साझा की थी तो लंदन में रहने वाले कवि मोहन राणा ने एक कविता इसी चचरी पुल के नाम तैयार किया था-
“टिकोला से लदल गरमियाँ पार करती हैं चचरी पुल
मटमैले पानी में जा छुपा दिन अपने सायों के साथ...”
देश के अन्य हिस्सों में तो चचरी पुल के दर्शन शायद दुर्लभ हों लेकिन बिहार के अधिकांश ग्रामीण इलाकों में यह चचरी पुल लोगों के जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका है।
ReplyDeleteAap ne abhi Northeast states ke baare mei kabhi kuchh padha nahi hai. Yahan jitne baans ke pul honge, utne shayad hi aapko kahin aur milega.