Monday, March 02, 2015

गांव - देहात और वो गुदरी माई

किसानी करते हुए बीते दिनों को याद करना इन दिनों जैसे रुटिन का हिस्सा बन गया है। कोसी नदी की एक उपधारा कारी कोसी के कछार पर बसे अपने गांव में मक्का की खेती करते हुए आपका किसान बीस साल पीछे अपने बचपन में खो जाने की जिद करने लगा है। यादों में वह एक बरगद पेड़ को फिर से जानने की कोशिश करने लगा है, जिसे आस पड़ोस के गांव-देहात के लोग पूजने आया करते थे। नाम था उसका ‘गुदरी माई’। पेड़ किस तरह लोगों को और गावों को जोड़ता है, हमने इसे ग्रामीण परिवेश में ही सीखा। शायद गांव कनेक्शन यही है क्योंकि गांव हमें जोड़ना सीखाता है न कि तोड़ना।

बचपन में कारी कोसी पर बने पुराने लोहे पुल को पारकर दुर्गा पूजा में लगने वाले मेले में दाखिल होने से ठीक पहले एक पुराने बरगद पेड़ पर लाल, उजले, हरे रंग के कई कपड़े टंगे दिखते थे। बैलगाड़ी से उतरकर लोगबाग आंखे मूंदकर बुदबुदाते थे और फिर कपड़े के कुछ-एक टुकड़े पेड़ की डाली में बांध देते थे। न अगरबत्ती की सुगंध न कोई दीप लेकिन इसके बावजूद भी यह पूजा की एक पद्दति थी, जो आज भी है।

इन दिनों किसानी करते हुए अपना मानस गुदरी माई के आसपास चक्कर लगाने लगा है  खुद को 20 साल पीछे रखकर आज गुदरी माई को याद करने का जी कर रहा है। खेत की पगडंडियों पर चलते हुए आज यादों में अपनी दुनिया रचने की इच्छा है।

कारी कोसी पर बने लोहे के पुल पर पहुंचने से पहले एक लाल रंग का मकान दिखता था, वही थी रामनगर डयोढ़ी लेकिन हमें तो चंपानगर जाना होता था। हमारी बैलगाड़ी आगे निकल पड़ती थी। चंपानगर डयोढ़ी के पास से गुजरते हुए मन में अजीब से छनछनाहट दौड़ पड़ती थी। वहां संगीत की आराधना होती थी। अंचल में ख्याल गायिकी की तस्वीर गढ़ी जाती थी। कुमार श्यामानंद सिंह ठाकुर जी की अराधना शास्त्रीय संगीत के जरिए करते थे। फुटबॉल मैच का आयोजन होता था, कुश्ती के अखाड़े लगते थे।  लेकिन अभी मेरी याद में ड्योढ़ी से अधिक वह बरगद का पेड़ ही नाच रहा है।

लोगबाग और अंचल की स्मृति को खंगालने के बाद पता चला कि हमारे इलाके में मंदिर मस्जिद से दूर 'ऊपरवाला' गाछ-वृक्ष में वास करता आया है। काली मंदिर भी काली-थान कहलाती है। जमीन के एक छोटे से टुकड़े में खड़ा एक बूढ़ा पेड़ 'बाबूजी थान' जाने कब बन गया, पता नहीं हैं। यहां इतिहास स्मृति की पोथी में बैठ जाती है, जिसे खंगालना पड़ता है। जोगो काका कहते हैं कि अभी भी पू्र्णिमा की रात सफेद घोड़े पर ब्रह्म (देवता टाइप) आते हैं, उन्हीं का है यह 'बाबूजी थान'। मैं अक्सर पू्र्णिमा की रात उस जंगल में गुजारने की कोशिश करता हूं, ताकि महसूस कर सकूं अंचल की स्मृति को।

गांव देहात की स्मृति यही है। यहां दिखावा कुछ भी नहीं है। लोगबाग जीवन को यहां जीते हैं खेत-पथार के लिए..अन्न के लिए। मेरी गुदरी माई की कहानी भी उसी स्मृति की श्रेणी में आती है। दुर्गा पूजा के आठवें दिन यानि अष्टमी को चंपानगर में लगने वाले मेले में दाखिल होने से पहले लोग गुदरी माई के पास  पहुंच जाते थे, मन्नतें मांगने। ‘मांगना’ अजीब शब्द है, कई अर्थ निकल आते हैं। मांगना शब्द से यह गीत याद आने लगता है- "अर्जियां सारी मैं चेहरे पे लिख के लाया हूं, तुमसे क्या मांगूं तुम खु़द ही समझ लो मौला। दरारे-दरारे है माथे पे मौला, मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला...।"

खैर, मन्नतें पूरी  होने पर लोगबाग उस बरगद पेड़ के किसी टहनी पर एक कपड़ा टांग देते थे, नए कपड़े नहीं पुराने। पता नहीं इसकी शुरुआत कैसे हुई होगी लेकिन अध्ययन करने पर कई कथाओं को विस्तार मिल सकता है। हम इसकी शुरुआत कर सकते हैं, यादों को सहेज सकते हैं। इन दिनों लगातार कबीर की साखियों पर ध्यान लगाने की वजह से गुदरी माई की याद और भी तेज हो गई है। दरअसल कबीर को पढ़ते वक्त इस तरह के कई ख्याल आते हैं। "हद-हद टपे सो औलिया..और बेहद टपे सो पीर..हद अनहद दोनों टपे सो वाको नाम फ़कीर..हद हद करते सब गए और बेहद गए न कोए अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोय.... भला हुआ मोरी माला टूटी मैं रामभजन से छूटी रे मोरे सर से टली...।"

हाल ही में दिल्ली, कानपुर, कुशीनगर के रास्ते पूर्णिया के अपने गांव चनका आने पर मुझे गुदरी माई में पीरबाबा दिखने लगे हैं, मैं याद करते हुए बौरा जाता हूं। कानपुर में कैंट इलाके में दाखिल होते ही वहां हमें एक पीर बाबा से सामना होता है। पता चला कि हर गुरुवार को वहां भीड़ जुटती है लेकिन मुझे वहां जलने वाली अगरबत्ती से उठने वाली  सुगंध अपनी ओर खींचती है और मैं सिर झुका लेता हूं...। मैं फिर अपनी यादों के जरिए चनका से कानपुर पहुंच जाता हूं। सोचता हूं कि गुदरी माई ने न जाने कितने लोगों की अर्जियां सुनी होगी..क्या हम बाद में उसे याद करने की भी जरुरत महसूस करते हैं?  मशीन की तरह बनती जा रही जिंदगी में क्या हमारा नाता गाछ-वृक्षों से यूं ही बना रहेगा? ऐसे सवाल इन दिनों खूब तंग करने लगे हैं।

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