Monday, February 23, 2015

खेती से भंग हो रहा मोह

नहरखेतपगडंडीगाछ-वृक्षचिडियों की आवाजेंबरसात में माटी की सुगंधधनरोपनी के वक्त कादो से सने रोपनी करते लोगों के पैर..। आप समझ रहे होंगे कि लिखने वाला’ रुहानी होता जा रहा है लेकिन बात यह है कि लिखने वाला’ किसानी करने वाले लोगों की बात करना चाहता है। अपनी कथाओं के जरिए जन-मानस को गांव से करीब लाने वाले लेखक फणीश्वर नाथ रेणु अक्सर कहते थे कि खेती करना कविता करना हैकहानी लिखना है..।

फणीश्वर नाथ रेणु ने एक दफे कहा था
, “एक एकड़ धरती में धान उपजानाउपन्यास लिखने जैसा है।  लेखन का ही आनंद मिलेगा खेती करने में। साथ ही वे खेती को एक अलग नजरिए से लोगों के सामने लाने की कोशिश भी करते थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- "आबरन देवे पटुआपेट भरन देवे धान। पूर्णिया के बसइयारहै चदरवा तान।" रेणु को पढ़ते हुए आप किसी किसानी करने वाले से यह सवाल पूछ सकते हैं कि क्या आप किसान हैं?  क्योंकि किसानी को बयां करना सबसे कठिन काम है।
चलिए आपसे न पूछकरसवाल करने वाला खुद से यह सवाल करता हैदरअसल किसानी पृष्ठभूमि में जिसका मानस तैयार हुआ हैवह भी ऐसे सवाल पर लंबी चुप्पी साध लेता है। हालांकि अभी भी किसानी की दुनिया में खुश्बू बरकरार हैबस हिंदुस्तानी समाज का नजरिया बदल गया है। रेणुकोसी के जिस इलाके में पटसन (जूट) की खेती से खुशहाल रहने वाले किसानी युग की चर्चा करते थेअब वह युग बदल गया है। पटसन के जगह पर पहले सूरजमुखी ने किसानों को खुशहाल बनायाफिर मक्का ने और अब वह जगह लकड़ी ले रहा है।

इन सब उदाहरणों के संग खेती छोड़ने वाले लोगों का भी जिक्र जरुरी है। आखिर ऐसी क्या वजह सामने आ गई बिहार के कोसी इलाके के तथाकथित बड़े किसानों का खेती से मोह भंग हो गया
यह एक बड़ा सवाल है और इसी के आसपास क्या आप किसान हैं’ जैसा सवाल उठ खड़ा हुआ है।  इन सबके बीच फेसबुक पर मेरे एक दोस्त की टिप्पणी है-  पूर्णिया का ही कोई आदमी समझ सकता है कि पटुआ की सोंधी खुशबू किसान की आत्मा को तर कैसे करती होगी और ललका भदईया चौर (चावल) का भात की महिमा क्या होती है...।” 
पूर्णियाकटिहारअररियाकिशनगंजमधेपुरासहरसा जिले के ग्रामीण इलाकों में खेती एक पुरानी परंपरा को ढ़ो रही हैजिसकी वजह से खेती का जोड़-घटाव खराब हो रहा है। क्या आप किसान हैं?  के सकारात्मक जवाब के लिए किसानी के अंदाज को पेशेवर ढंग से पेश करने की भी जरुरत है। ऐसी बात नहीं है कि धानगेंहू या अन्य किसी नकदी फसल के बदौलत एक परिवार का भरन पोसन नहीं हो सकता है। बस किसानी का अंदाज बदलना होगा।

दरअसल
इस सवाल के बीच में दो तरह के लोग अतृप्त’ हुए खड़े हैं। एक ऐसे किसानजिनके पास जमीन है और जो पहले खुट्टा गाड़कर गांव में जमे रहते थे और उसी के संग लोग काम करते थे। (कृप्या इन अतृप्त जमात के बीच हम-आप भूमि-वितरण को न खड़ा करें क्योंकि राजनीति करने वाले इसका हल कभी नहीं निकालेंगे क्योंकि वे पिछले कई दशकों से इसी की बदौलत अपनी दुकान चला रहे हैं। हमें खुद इसका हल निकालना होगासकारात्मक तरीके से।) अब सवाल उठता है कि फिर ऐसी तस्वीर कैसे उभर गई कि दोनों जमात गांव से दूर हो गए। ऐसे में यह भी सवाल लाजमी है कि क्या उन इलाकों में अब खेती ही नहीं हो रही हैक्योंकि जमीन वालेकाम करने वाले हैं ही नहीं। दरअसल इन सबके संग एक दूसरी तस्वीर भी तैयार हुईवह पलायन के भीतर पलायन का है। गांव से पलायन का रुख शहर का रास्ता तय करता है लेकिन यह भी जानने की जरुरत है कि एक पलायन का रास्ता गांव से गांव का भी है। ये ऐसे लोग होते हैंजो नकदी फसल के लिए एक ही जिले के दूसरे गांव का रुख करते हैं।

कोसी के अधिकांश इलाकों में पलायन का यह रुप सबसे अधिक देखा जा रहा है। मेहनतकश लोगों की बड़ी जमात पहले पंजाब
हरियाणादिल्ली आदि जगहों से मेहनत कर आते हैंकुछ पूंजी जमा करते हैं और फिर उन किसानों के संपर्क में आते हैंजो अब शहर का रास्ता अपना चुके हैं। यहीं आकर खेती एक कांट्रेक्ट का रुप अख्तियार करती है। ये मेहनतकश प्रवासी किसान अधिक भूमि वाले किसानों के खेतों को ठेके पर लेते हैं और शुरु होती है नकदी फसल की एक नई फिल्मजिसमें फसल के लिए नकद का प्रावधान है। इस फिल्म का नायक एक प्रवासी किसान होता हैजिसमें परिस्थितियों के संग कदम मिलाने की ताकत होती है। किसानी की नई परिभाषा गढ़ते इन लोगों को करीब से समझने की जरुरत है। इसमें प्रवासियों की मनोस्थिति को भी जानना होगा। समाजशास्त्र के अध्येताओं को इस पर नजर डालने की जरुरत है। मीडिया को इस ओर देखना होगाताकि एक बड़े तबके का किसानी व्यवस्था से मोह भंग न हो और जब यह सवाल कोई पूछे कि क्या आप किसान हैं ? ” तो जवाब सकारात्मक ही आएइसकी गारंटी मिले।

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