लंबे अंतराल के बाद आज लिखने बैठा हूं। वक्त इतनी तेज रफ्तार से बढ़ रहा है कि अंतराल का अहसास भी नहीं होता है। व्यस्तता दिन पर दिन बढ़ती चली जा रही है और इन व्यस्तताओं के बीच जाने कितना कुछ नया सीखने को भी मिल रहा है।
मुल्क में हुए आमचुनाव के बाद बहुतों के लिए बहुत कुछ बदल गया है तो बहुतों के लिए सबकुछ वैसा ही है जैसा पहले था। ऐसा लिखते हुए लगता है मानो दर्शन की बातें करना लगा हूं लेकिन सत्य से भला कौन पीछे हटा है और कौन हटने की हिम्मत करेगा।
सत्य को स्वीकारना भी साहस का काम है, ऐसा साहस सबके नसीब में कहां। गाम के मुसहर टोले में शाम ढलते ही लोगबाग के जीवन को देखता हूं तो उस साहस का अहसास होने लगता है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, उससे जीवन से आनंद हासिल करने का पाठ पढ़ने को मिले तो लगता है अरे, हम तो नाहक ही परेशान थे अबतक। ये सबकुछ तो माया है।
कबीर का लिखा मन में बजने लगता है- “माया महाठगिनी हम जानी ..निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.....” ठीक उसी पल मन के रास्ते पंडित कुमार गंधर्व की भी आवाज भी कानों में गूंज लगती है- “भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी…..कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी”
कभी कभी लगता है क्या जीवन में कोई कथा संपूर्ण हो पाती है..। इस दौरान मुझे जीवन आंधी के माफिक लगने लगती है, सबकुछ उड़ता नजर आने लगता है। गाम के रामठाकुर स्थान से हारमोनियम की आवाज मध्यम गति से कानों तक पहुंचने लगती है। मैं अपने कमरे में बैठा की-बोर्ड पर खिटिर-पिटिर करने लगता हूं। सबकुछ अनायास ही होने लगता है।
एक अनुभूति होती है, किसी के होने का अहसास होता है। तब पता चलता है कि यह तो अपने होने का अहसास है। प्रसून जोशी का लिखा याद आने लगता है, जिसमें वे कहते हैं- "जब तेरी गली आया, सच तभी नज़र आया, मुझ में ही वो खुशबू थी, जिससे तूने मिलवाया...”
एक अनुभूति होती है, किसी के होने का अहसास होता है। तब पता चलता है कि यह तो अपने होने का अहसास है। प्रसून जोशी का लिखा याद आने लगता है, जिसमें वे कहते हैं- "जब तेरी गली आया, सच तभी नज़र आया, मुझ में ही वो खुशबू थी, जिससे तूने मिलवाया...”
गाम में एक दिन किसी से बात हो रही थी तो उसके भीतर का भय मुझे सामने दिखने लगा। वह भय मौत को लेकर थी। मौत शायद सबसे बड़ी पहेली है, हम-सब उस पहेली के मोहरे हैं। जब गाम का पलटन ऋषि मौत और भय की बातें कर रहा था तो मुझे फ़िल्म 'आनंद' में कैंसर से जूझ रहे राजेश खन्ना और फिल्म में डाक्टर का किरदार निभा रहे अमिताभ बच्चन का संवाद याद आने लगता है, जिसमें राजेश खन्ना कहते हैं, "मौत तो एक पल है. मैं उस एक पल के डर से आने वाले लाखों पल का लुत्फ़ क्यों ना उठाऊं. जब तक ज़िंदा हूं, मरा नहीं. जब मर गया, तो साला मैं ही नहीं."
आज की रात लोक-परलोक की ऐसी कई बातें करने का मन कर रहा है। जीवन की राह पर हर राहगीर से बातें करने का मन कर रहा है। नदीम कासमी की बात याद आ रही है- रात भारी सही कटेगी जरुर, दिन कड़ा था मगर गुजर के रहा...। गुलजार भी याद आने लगे हैं ..उनका लिखा मन में गूंजने लगा है-
"एक राह अकेली सी, रुकती हैं ना चलती है
ये सोच के बैठी हूँ, एक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुचती है
इस मोड़ से जाते है.. .."
3 comments:
Bahut din bad likha acha likha..aur likhte rahiye
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
अच्छा लगा गिरिन्द्रजी.
कभी कभी बैठे हुए या किसी मोड़ से गुजरते हुए कुछ ऐसा ही याद आया करता है जैसा आपने प्रस्तुत किया है चाहे वो आपकी अपनी बात हो या कबीर, कुमार गंधर्व, गुलजार, प्रसून जोशी आदि के शब्द या फिल्म आनंद के संवाद...जीवन के सत्य कहीं न कहीं इनसे रूबरू होता प्रतीत होता ही है।
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