Tuesday, December 03, 2013

अंचल की रात और किसानी की बात

धान की तैयारी होने के बाद खेत में मकई बोने की तैयारी शुरु हो चुकी है। किसानी में जुटे लोग-बाग इन दिनों बहुत कुछ दांव पर लगा रहे हैं। नकदी फसल के रुप में पूर्णिया जिले में मकई का कोई जोड़ नहीं है। ट्रैक्टर की फटफट आवाज देर रात तक सुनाई दे रही है। किसानों के लिए यह महीना सबसे थकाऊ साबित होता है। आलू की फसल की पटवन के बाद मकई में पूरी ताकत झोंकी जा रही है। अंचल में दिन और रात का अंतर अभी पता नहीं चल पा रहा है। धूल-धूसरित शरीर और माटी में डूबा मन इन दिनों माटी की कविता कहानी में डुबकी लगा रहा है। 

धान की तैयारी होने के बाद किसानों के हाथों में कुछ पूंजी आ चुकी है। कोई भगैत करवा रहा है तो कोई ग्राम्य देवता की पूजा-अर्चना। गाम के रामठाकुर स्थान से देर रात तक ढोलक की थाप सुनाई देती है। पलटन ऋषि की आवाज और हारमोनियम की धुन कान तक जब पहुंचती है तो मन साधो-साधो करने लगता है। वहीं कबीर मठ से भी आवाज आ रही है। यह सब लिखते हुए मन बार-बार यह पूछ रहा है कि अंचल अब कैसा लग रहा है
?  सवाल सुनकर मन ही मन मुस्कुराता हूं और कबीर की पाती बुदबुदाने लगता हूं- कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर......

पटवन और खाद-बीज के कर्ज में अबतक डूबे किसानी समाज धान की उपज से संतुष्ट है। कर्ज अदायगी के बाद उनका मन हरा दिख रहा है। नई फसल से उन्हें काफी उम्मीदें हैं। किसानी करते हुए मैं भी उम्मीदें करना लगा हूं J बेहतर कल के लिए।

अंचल की रात और यह लैपटॉप इन दिनों लिखते रहने की बात करने लगा है। फसल की तरह शब्दों की भी खेती करते रहने की सोचने लगा हूं। फिलहाल नहर के उस पार से कुछ आवाजें आ रही है। घड़ी की तरफ देखता हूं तो सुबह के तीन बज रहे हैं। भैंसवार की आवाज पहचान जाता हूं। पस्सर खोलने का समय है, भैंसवार गीत गा रहा है। आवाज में विरह है, बिना शास्त्रीय ज्ञान के ही भैंसवार हमें शास्त्रीय संगीत सुना रहा है। आंखों से नींद गायब है और मैं किसानी के संग रेणु की लिखी बातों में डूबने लगता हूं।

घर के आगे जूट के बोरे में धान को देखकर अनायस ही फणीश्वर नाथ रेणु की एक चिट्ठी का स्मरण हो जाता है। उसमें रेणु ने कोसी के इलाके में बलूहायी जमीन पर हो रही खेती का जिक्र करते हैं। वे लिखते हैं-  पिछले पंद्रह बीस वर्षों से हमारे इलाके उत्तर बिहार के कोसी कवलित अंचल में एक नई जिंदगी आ रही है। हरियाली फैल रही है..फैलती जा रही है बालूचरों पर। बंजर धूसर पर रोज रोज हरे पीले और धानी रंग मोटे ब्रश से पोते जा रहे हैं। 

सचमुच बंजर जमीन पर कदंब के संग धान-मक्का और गेंहू की खेती मुझे पेंटिंग ही लगती है। खेत मेरे लिए कैनवास बन जाता है और किसानी कर रहे लोग मशहूर पेंटर की तरह नजर आने लगते हैं। मन शांत हो जाता है, दुनियादारी कुछ पल के लिए थम सी जाती है।

खिड़की से बाहर झांकता हूं तो आसमान में अंतिम तारा सुबह के लिए व्याकुल हुए जा रहा है, चिड़ियों की हल्की चहचहाट सुनाई देने लगी है। किसान अब नए दिन की तैयारी में जुटने लगे हैं, आज खाद-बीज से खेत की दुनिया बदलनी है। सबकुछ जमीन पर।


सच कहूं तो रेणु का मैला आंचल अब आंखों में बस सा गया है। मुझे भी अपने कमरे से विशाल मैदान नजर आने लगा है। मैं भी अब कहना चाहता हूं- यही है वह मशहूर मैदान  नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक  वीरान, धूमिल अंचल. मैदान की सूखी हुई दूबों में चरवाहों ने आग लगा दी है  पंक्तिबद्ध दीपों  जैसी लगती है दूर से. तड़बन्ना के ताड़ों की फुगनी पर डूबते सूरज की लाली क्रमश: मटमैली हो रही है......

6 comments:

  1. भाई वाह आप तो सोझे सोझे गाम में उतार दिए

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  2. Vaah... Padhkar Anand aa gaya!

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  3. Vaah... Padhkar Anand aa gaya!

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  4. SACHAMUCH AAPANE BRUSH CHALA DIYA

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  5. रेणु के मुरीद हैं आप.. और हम लोग आपकी लेखनी के. :)

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