बहुत दिनों से सोच रहा था कि किसी सुबह थमकर घंटों
मन की बात सुनेंगे ठीक वैसे ही जैसे गुलजार को सुनते हैं और रेणु को पढते हैं। आज
रविवार की सुबह हमने यूं ही मन की बात सुननी शुरु की।
पिछले एक साल से गाम-घर करते हुए हमने जाना कि खेत-पथार की तरह ही मन के किसी कोने में भी एक खेत तैयार हो चुका है। फसलों का चक्र खुद में समेटे मन का खेत उपजाऊ है, उसकी मिट्टी में सोंधी सी महक है, ठीक वैसी ही महक जो जुताई के बाद खेतों से आती है और अब उसकी खुश्बू से बौरा जाते हैं।
सितम्बर के बाद आलू की खेती के लिए जब जमीन की जुताई
शुरु होती है तो दूर पहाड़ से चिड़ियों का दस्ता मैदान में उतर आता है, मन के खेत
में भी ऐसा ही कुछ दिख रहा है। पहाड़ी मैना खेत की जुताई के बाद खेतों में लोट-पोट
होकर कीड़े-मकोड़े-घास-फूस चुनती रहती हैं और उसकी चैं-चैं मन को मैदान से सीधे
पहाड़ पहुंचा देता है।
मन की बात सुनते हुए पता चला कि मन भी चिड़ियों के माफिक उड़ता रहता है, या उड़ने की चाह रखता है। पहाड़ से मैदान तो मैदान से पहाड़। उड़ना भला किसे पसंद नहीं है। लेकिन मन को उड़ते छोड़ देना हर किसी के बस की बात नहीं है, हमारे लिए तो मन बस खेत है...।
मन की बात सुनते हुए पता चला कि मन भी चिड़ियों के माफिक उड़ता रहता है, या उड़ने की चाह रखता है। पहाड़ से मैदान तो मैदान से पहाड़। उड़ना भला किसे पसंद नहीं है। लेकिन मन को उड़ते छोड़ देना हर किसी के बस की बात नहीं है, हमारे लिए तो मन बस खेत है...।
खेत उपजाऊ रहे, ऐसा हर किसान चाहता है। किसानी करते
हुए मन को सुनना भी किसान जानता है क्योंकि उसे पता है कि मौसम की तरह यदि मन भी
बदलने लगेगा तो बात नहीं बन पाएगी , वैसे भी अब बिन-मौसम बारिश होने लगी
है...किसान के हाथ से अब बहुत कुछ दूर होने लगा है। कहते हैं कि यह सब ग्लोबल वार्मिंग का असर है। तो भी, किसान को मन पर भरोसा
है और इसलिए वह मन की सुनता है।
गाम का छोटे मांझी कहता है कि किसान के मन में बारह महीने अनवरत खेती होती है, वह खेत खाता है, वह खेत सोचता है...उसकी दुनिया खेत है....किसान के मन में धान-गेंहू-मक्का का चक्र चलता रहता है और इन सबके बीच वह जीवन को उपजाऊ बनाने की भरसक कोशिश में जुटा रहता है।
गाम का छोटे मांझी कहता है कि किसान के मन में बारह महीने अनवरत खेती होती है, वह खेत खाता है, वह खेत सोचता है...उसकी दुनिया खेत है....किसान के मन में धान-गेंहू-मक्का का चक्र चलता रहता है और इन सबके बीच वह जीवन को उपजाऊ बनाने की भरसक कोशिश में जुटा रहता है।
मुझे मन को सुनने जैसा ही आनंद गाम के खेतिहरों को
सुनकर मिलता है। उनकी बातों से मेहनत की महक आती है और सरसों के खेत की तरह प्यार
उमड़ता है। इसी बीच मन के भीतर से कबीर की वाणी गूंज उठती है- “कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर …” दरअसल किसानों से किसानी की बात सुनते हुए मन निर्मल हो जाता है वैसे भी मन के भीतर इतना प्रपंच रच-बस जाता है कि हम कुछ देर के लिए खुद को तटस्थ देखने की कोशिश में जुट जाते हैं और ऐसे में गाम -घर की बातें मन को सुकून देती है।
वैसे मन की बात लिखते हुए बार-बार लगता है कि मन
पंछी हो चला है, उसपर उड़ने की जिद सवार है लेकिन जिद को पता रहना चाहिए कि तेज और
सफल उड़ान भरने के लिए अच्छी संगत की भी
जरुरत है। मन को सुनते हुए अक्सर कबीर की यह वाणी याद आती है- “कबीरा तन पंछी भया, जहां मन तहां उड़ी जाई। जो जैसी संगती कर, तैसा ही फल
पाई............... “
" मन के हारे हार है मन के जीते जीत । पार-ब्रहम को पाइये मन की ही परतीत ।"
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