कदंब के खेत :) |
“आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के
बसैय्या रहे चदरवा तान...” फणीश्वर नाथ रेणु ने जब
यह लिखा था तब पूर्णिया जिले के किसान इन्हीं दोनों (पटसन और धान) फसलों पर आश्रित
थे और खूब खुश भी थे। लेकिन धीरे-धीरे किसानी का प्रारुप बदलने लगा। नकदी फसल का
खुमार किसानों के सिर चढ़कर बोलने लगा। आपका कथावाचक किसानी के इसी बदलते स्वरुप
में अंचल में दाखिल होता है।
कथावाचक मक्का और धान के संग किसानी को व्यवसायिकता के चोले में ढालने की कोशिश करता है।दरअसल यह एक बनते किसान की डायरी है जिसने महानगरी जीवन को देखा-भोगा है। खेती बारी से पहले उसका कोई वास्ता नहीं था लेकिन पिछले 12 महीने से वह खेत-खलिहान में सक्रिय है और इच्छा है कि यह 12 महीना चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ता ही जाए।
कथावाचक को अब कंप्यूटर की खिटिर-पिटिर की जगह ट्रैक्टर की आवाजों से प्यार हो गया है। आपका कथावाचक नकदी फसल के प्रारुप में भी बड़े स्तर पर बदलाव लाने की जुगत में है। जालंधर के अपने एक दोस्त सुखविंदर की सलाह से वह अंचल के परती खेतों में बाजार के लकड़ी (woods) उपजा रहा है।
प्लाई-बोर्ड के बढ़ते बाजार को देखते हुए वह उन खेतों में कदंब के पौधे लगा रहा है जहां एक साल पहले तक जमकर धान, गेंहू और मक्का उपजाया जाता था। केवल लकड़ी पर ही नहीं बल्कि नजर बांस पर भी है। अंचल में जब बांस से लोग मुंह मोड़ने लगे हैं तब आपका कथावाचक बांस से इश्क लड़ाने बैठा है। वह जोत की भूमि में बांस के झुरमुट लगा रहा है। बरसात का यह मौसम इसके लिए उपयुक्त है।
इन सबके बीच उसे 12 महीने पहले का चकमक जीवन भी याद आता है। सुबह नौ से शाम छह तक एसी कमरे में अपने सहकर्मियों के संग काटे कुल छह साल याद आते हैं। चाय-कॉफी के संग दुनिया जहान की बातें हम करते थे। लेकिन किसानी करते उसे जो अमुभव हो रहा है वह उन बतकही से कोसों दूर है। जमीन को लेकर संघर्ष जैसी बातों से जमीन पर पाला पड़ रहा है। कहने को तो यह नीम की तरह तीता है लेकिन...। खैर, इन मुद्दों पर बात होती रहेगी।
कथावाचक मक्का और धान के संग किसानी को व्यवसायिकता के चोले में ढालने की कोशिश करता है।दरअसल यह एक बनते किसान की डायरी है जिसने महानगरी जीवन को देखा-भोगा है। खेती बारी से पहले उसका कोई वास्ता नहीं था लेकिन पिछले 12 महीने से वह खेत-खलिहान में सक्रिय है और इच्छा है कि यह 12 महीना चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ता ही जाए।
कथावाचक को अब कंप्यूटर की खिटिर-पिटिर की जगह ट्रैक्टर की आवाजों से प्यार हो गया है। आपका कथावाचक नकदी फसल के प्रारुप में भी बड़े स्तर पर बदलाव लाने की जुगत में है। जालंधर के अपने एक दोस्त सुखविंदर की सलाह से वह अंचल के परती खेतों में बाजार के लकड़ी (woods) उपजा रहा है।
प्लाई-बोर्ड के बढ़ते बाजार को देखते हुए वह उन खेतों में कदंब के पौधे लगा रहा है जहां एक साल पहले तक जमकर धान, गेंहू और मक्का उपजाया जाता था। केवल लकड़ी पर ही नहीं बल्कि नजर बांस पर भी है। अंचल में जब बांस से लोग मुंह मोड़ने लगे हैं तब आपका कथावाचक बांस से इश्क लड़ाने बैठा है। वह जोत की भूमि में बांस के झुरमुट लगा रहा है। बरसात का यह मौसम इसके लिए उपयुक्त है।
इन सबके बीच उसे 12 महीने पहले का चकमक जीवन भी याद आता है। सुबह नौ से शाम छह तक एसी कमरे में अपने सहकर्मियों के संग काटे कुल छह साल याद आते हैं। चाय-कॉफी के संग दुनिया जहान की बातें हम करते थे। लेकिन किसानी करते उसे जो अमुभव हो रहा है वह उन बतकही से कोसों दूर है। जमीन को लेकर संघर्ष जैसी बातों से जमीन पर पाला पड़ रहा है। कहने को तो यह नीम की तरह तीता है लेकिन...। खैर, इन मुद्दों पर बात होती रहेगी।
जारी....
पुनश्च:- यह एक बनते किसान की डायरी है, हम इस डायरी को जारी रखेंगे और अनुभव साझा करते रहेंगे।
jaari rahe
ReplyDeletegood story
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