अंचल में रच-बस जाने के बाद आपका कथावाचक ग्राम्य- कथाओं के तार सुलझाने में लग गया है। कथा भी ऐसी, जो
कभी खत्म ही न हो- परती-परिकथा-कथा अनंता….!
तो चलिए आज हम आपको अंचल की कथा में डुबकी लगवाते हैं। गाम के सबसे दक्षिण
में मुसहर टोला है, जिसे सब मुसहरी कहते हैं। गाम में जो भी सबसे मेहनत वाला काम
होता है न, वो इसी टोले के लोगों के हिस्से आता है।
खैर, सामाजिक ताने-बाने से कोसों दूर आज कथावाचक आपको इस टोले के संगीत से रूबरू करना चाहेगा। आज पलटन ऋषिदेव के बेटी की शादी है। शादी-ब्याह का कार्यक्रम सांझ में है और भोर से दुपहरिया तक भगैत का कार्यक्रम। अंचल में भगैत की उपस्थति ठीक वैसे ही जैसे जीवन में प्रेम।
भगैत के दौरान मूलगैन (मुख्य-गायक) का आलाप कथावाचक को सबसे अधिक खींचता है। इस दौरान मुसहरी के नौजवानों की आंखों को पढ़ना भी जरुरी लगा। लोकप्रिय संगीत-गीत के दौर में भगैत की उपस्थिति से आप टोले के मन को समझ सकते हैं । इन नौजवानों के मन में अभी भी भगैत का स्थान सर्वोपरि है। इन लोगों की आंखों को देखकर कथावाचक को कबीर की वाणी याद आ गई- “अनुभव गावै सो गीता”
भगैत के ठीक बाद नाच का कार्यक्रम है। शायद एक-आध घंटे के लिए। कोसी में कभी विदापत नाच हुआ करता था, जिसमें ढोलक की थाप और विकटा का पात्र इसी टोले का गबरु जवान हुआ करता था लेकिन वक्त के संग बहुत सारी चीजें बदलती है और इसी बदलाव की कड़ी में अंचल की सांस्कृतिक अध्याय में भी बदलाव दिखने लगा। लेकिन मुसहरी में विदापत नाच का कुछ अंश अभी भी जीवित है।
विद्यापति के राधा-कृष्ण के श्रृंगारिक गीतों को प्रस्तुत किया जाने वाला यह विदापत नाच कोसी की पौराणिक परंपरा की मिशाल है। 1960 में आकाशवाणी पटना द्वारा इसकी रिकार्डिग के लिये एक मंडली की स्थापना की गई थी, जिसके लिए कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु ने पहल की थी।
अब देखिए न, य़े सब लिखते हुए कथावाचक को ठिठर मंडल की याद आने लगी है। लोगबाग कहते हैं कि कोसी के इलाकों में विदापत नाच में हमेशा से कृष्णा की भूमिका निभाने वाले ठिठर का जलवा मंच पर देखते ही बनता था। 75 वर्ष की उम्र में भी मंच पर कृष्ण की भूमिका में उतरकर वे बांसुरी बजाते थे। अफसोस साल 2010 के फरवरी में ठिठर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
खैर, पलटन ऋषि के यहां विद्यापत नाच आधे घंटे ही चला लेकिन इस दौरान ढोल-मृदंग-झाल की आवाजें कथावाचक को अपनी ओर खींचने लगी थी। अंचल की माया उसे अपने में लपेट चुकी थी। एक ओर विदापत नाच का संगीत उसे खींच रहा था वहीं दूसरी ओर कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में स्पीक मैके के सौजन्य से आयोजित एक कार्यक्रम में बनारस के पंडित छन्नू लाल मिश्रा की आवाज आज उसके कान में गूंज रही थी- “माया महाठगिनी हम जानी ..निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.....”
ठीक उसी पल मन के रास्ते पंडित कुमार गंधर्व की भी आवाज कानों में गूंज रही थी- “भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी…..कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी”
खैर, सामाजिक ताने-बाने से कोसों दूर आज कथावाचक आपको इस टोले के संगीत से रूबरू करना चाहेगा। आज पलटन ऋषिदेव के बेटी की शादी है। शादी-ब्याह का कार्यक्रम सांझ में है और भोर से दुपहरिया तक भगैत का कार्यक्रम। अंचल में भगैत की उपस्थति ठीक वैसे ही जैसे जीवन में प्रेम।
भगैत के दौरान मूलगैन (मुख्य-गायक) का आलाप कथावाचक को सबसे अधिक खींचता है। इस दौरान मुसहरी के नौजवानों की आंखों को पढ़ना भी जरुरी लगा। लोकप्रिय संगीत-गीत के दौर में भगैत की उपस्थिति से आप टोले के मन को समझ सकते हैं । इन नौजवानों के मन में अभी भी भगैत का स्थान सर्वोपरि है। इन लोगों की आंखों को देखकर कथावाचक को कबीर की वाणी याद आ गई- “अनुभव गावै सो गीता”
भगैत के ठीक बाद नाच का कार्यक्रम है। शायद एक-आध घंटे के लिए। कोसी में कभी विदापत नाच हुआ करता था, जिसमें ढोलक की थाप और विकटा का पात्र इसी टोले का गबरु जवान हुआ करता था लेकिन वक्त के संग बहुत सारी चीजें बदलती है और इसी बदलाव की कड़ी में अंचल की सांस्कृतिक अध्याय में भी बदलाव दिखने लगा। लेकिन मुसहरी में विदापत नाच का कुछ अंश अभी भी जीवित है।
विद्यापति के राधा-कृष्ण के श्रृंगारिक गीतों को प्रस्तुत किया जाने वाला यह विदापत नाच कोसी की पौराणिक परंपरा की मिशाल है। 1960 में आकाशवाणी पटना द्वारा इसकी रिकार्डिग के लिये एक मंडली की स्थापना की गई थी, जिसके लिए कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु ने पहल की थी।
अब देखिए न, य़े सब लिखते हुए कथावाचक को ठिठर मंडल की याद आने लगी है। लोगबाग कहते हैं कि कोसी के इलाकों में विदापत नाच में हमेशा से कृष्णा की भूमिका निभाने वाले ठिठर का जलवा मंच पर देखते ही बनता था। 75 वर्ष की उम्र में भी मंच पर कृष्ण की भूमिका में उतरकर वे बांसुरी बजाते थे। अफसोस साल 2010 के फरवरी में ठिठर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
खैर, पलटन ऋषि के यहां विद्यापत नाच आधे घंटे ही चला लेकिन इस दौरान ढोल-मृदंग-झाल की आवाजें कथावाचक को अपनी ओर खींचने लगी थी। अंचल की माया उसे अपने में लपेट चुकी थी। एक ओर विदापत नाच का संगीत उसे खींच रहा था वहीं दूसरी ओर कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में स्पीक मैके के सौजन्य से आयोजित एक कार्यक्रम में बनारस के पंडित छन्नू लाल मिश्रा की आवाज आज उसके कान में गूंज रही थी- “माया महाठगिनी हम जानी ..निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.....”
ठीक उसी पल मन के रास्ते पंडित कुमार गंधर्व की भी आवाज कानों में गूंज रही थी- “भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी…..कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी”
खैर इन सबके संग कथा भी चलती रहेगी, ठीक जीवन की तरह। कभी कभी लगता है क्या
कोई कथा सचमुच में संपूर्ण हो पाती है? यह सवाल मायावी है,
ज्ञानी-विद्वत जन इस पर राय देंगे। फिलहाल गाम से इतना ही, यह कहते हुए कि “चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस...”
गिरीन्द्र बाबू सुप्रभात आपने सुबह की किरणों में रस घोल दिया ग्राम्य जीवन को लिखकर परती परी कथा के लिए प्रणाम ...
ReplyDeleteआपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज ३० मई, २०१३, बृहस्पतिवार के ब्लॉग बुलेटिन - जीवन के कुछ सत्य अनुभव पर लिंक किया है | बहुत बहुत बधाई |
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ReplyDeleteवाह ,बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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